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________________ अपोहवादः ५४७ नास्माकमनीला दिव्यावृत्त्या विशिष्टोऽनुत्पलादिव्यवच्छेदोऽभिमतो यतोयं दोषः स्यात् । किं तर्हि ? अनीलानुत्पलाभ्यां व्यावृत्तं वस्त्वेव तथा व्यवस्थितम् । तच्चार्थान्तरव्यावृत्त्या विशिष्टं शब्देनोच्यते इत्यप्यपेशलम् ; स्वलक्षणस्याऽवाच्यत्वात् । न च स्वलक्षणस्य व्यावृत्त्या विशिष्टत्वं सिद्धयति ; यतो न वस्त्वपोहोऽसाधारणं तु वस्तु, न च वस्त्वऽवस्तुनोः सम्बन्धो युक्तः, वस्तुद्वयाधारत्वात्तस्य । प्रस्तु वा सम्बन्ध:, तथापि विशेषणत्वमपोहस्याऽयुक्तम्, न हि सत्तामात्रेण किश्चिद्विशेषणम् । किं तर्हि ? ज्ञातं सद्यत्स्वाकारानुरक्तया बुद्धया विशेष्यं रञ्जयति तद्विशेषणम् । न चापोहेऽयं प्रकारः सम्बन्ध ही नहीं तो उस सम्बन्ध से ( विशेषण विशेष्य से ) विशिष्ट ( युक्त ) पदार्थ की प्रतीति होना भी अशक्य है अन्यथा प्रतिप्रसंग होगा । बौद्ध - हम लोग अनील की व्यावृत्ति से विशिष्ट अनुत्पल का व्यवच्छेद नहीं मानते जिससे यह आधार आधेय सम्बन्ध का अभाव होना रूप दोष संभावित हो सके । किन्तु नील और अनुत्पल से व्यावृत्त वस्तु ही उस रूप से ( नीलोत्पल रूप से ) व्यवस्थित होना मानते हैं, और उस अर्थांतर की व्यावृत्ति से विशिष्ट वस्तु को शब्द द्वारा कहा जाता है ? जैन - यह कथन असुन्दर है, आपके यहां प्रर्थान्तर से व्यावृत्त पदार्थ को वास्तविक माना है, वास्तविक पदार्थ स्वलक्षण रूप ( क्षणिक निरंशरूप ) होता है और स्वलक्षण अवाच्य होता है ऐसी आपकी मान्यता है अतः अर्थान्तर व्यावृत्तरूप स्वलक्षण शब्द द्वारा कहा जाता है ऐसा कथन असत् ठहरता है । तथा स्वलक्षण का व्यावृत्ति से विशिष्टरूप होना सिद्ध नहीं होता क्योंकि व्यावृत्ति अर्थात् अपोह वस्तु रूप ( वास्तविक ) नहीं है, वस्तु तो असाधारण स्वरूप वाली होती है । वस्तु अवस्तु का सम्बन्ध होना भी असम्भव है और इसका कारण भी यह है कि सम्बन्ध दो वास्तविक सद्भावरूप वस्तुनों में हो होता है । उक्त अनील व्यावृत्ति रूप नील आदि पदार्थों में भी अपोह के ( अभाव के ) विशेषणपना प्रयुक्त ही है मात्र से वह विशेषण नहीं बन जाता अर्थात् अपोह का अस्तित्व है अतः विशेषण रूप होवे ही ऐसा नियम नहीं है । विशेषण तो वह होता है कि जो अपने आकार से अनुरक्त हुए ज्ञान द्वारा विशेष्य को रंजित करे । पदार्थ ज्ञात हो एवं अपोह में यह प्रकार Jain Education International सम्बन्ध होना मान लेवे तो क्योंकि किसी की सत्ता होने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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