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प्रमेयकमलमार्तण्डे अस्तु वा समयः, तथापि-कथमश्वादीनां गोशब्दानभिधेयत्वम् ? सम्बन्धानुभवक्षणेऽश्वादेस्तद्विषयत्वेनादृष्टेः' इत्यनुत्तरम्; यतो यदि यद्गोशब्दसंकेतकाले दृष्टं ततोऽन्यत्र गोशब्दप्रवृत्तिर्नेष्यते, तदैकस्मात्संकेतेन विषयीकृताच्छावलेयादिगोपिण्डात् अन्यबाहुलेयादि गोशब्देनापोह्य न भवेत् ।
इतरेतराश्रयश्च-अगोव्यवच्छेदेन हि गोः प्रतिपत्तिः, स चाऽगौर्गोनिषेधात्मा, ततश्च अगौः इत्यत्रोत्तरपदार्थो वक्तव्यो यो 'न गौः' इत्यत्र नत्रा प्रतिषेध्येत । न ह्यनितिस्वरूपस्य निषेधो विधातु
क्योंकि वह अवस्तु रूप ( अभाव रूप ) है और इन्द्रियां वस्तु रूप विषय को ग्रहण करती हैं, अतः इन्द्रियप्रत्यक्षज्ञान द्वारा अपोह का निश्चय करके उसमें संकेत होना अशक्य है। अनुमानज्ञान द्वारा भी अपोह का निश्चय करना अशक्य है क्योंकि वस्तुभूत सामान्य के बिना उसमें अनुमान की प्रवृत्ति नहीं हो सकती।
अपोह में संकेत होता है ऐसा मान भी लेवे तथापि अश्वादि पदार्थ गो शब्द से वाच्य नहीं यह कैसे सिद्ध हो सकता है ?
बौद्ध-गो शब्द और उसके अर्थ के सम्बन्ध का अनुभवन करते समय अश्वादि पदार्थ उस अनुभव के विषय होते हुए नहीं देखे जाते, अतः वे पदार्थ गोशब्द से वाच्य नहीं होते ?
जैन-यह कथन ठीक नहीं, क्योंकि यदि गो शब्द के संकेत काल में जो देखा है उसको छोड़कर अन्यत्र गो शब्द की प्रवृत्ति होना आपने स्वीकार नहीं किया है तो संकेत द्वारा विषयभूत एक शाबलेयादि गो विशेष से जो अन्य है ऐसे बाहुलेयादि गो विशेष गो शब्द द्वारा अश्वादि से अपोह्य (अपोह करने योग्य) नहीं हो सकेंगे अर्थात् गो शब्द से विवक्षित एक शाबलेय गो ही अश्वादि से व्यावृत्य हो सकेगी अन्य बाहुलेयादि गो अश्वादि से अव्यावृत्त ही रह जायगी।
शब्द का अर्थ अन्यापोह है ऐसा माने तो इतरेतराश्रय दोष भी आता है कैसे सो ही बताते हैं - अगो का व्यावर्तन करके गो की प्रतीति होगी और जो अगो है वह गोका निषेध स्वरूप है अतः "अगो' इस पद में स्थित गो शब्द है उसका अर्थ क्या है सो बताना होगा ? जिसका कि प्रतिषेध "न गौः” इस प्रकार के नञ समास द्वारा किया जाता है । अर्थको बिना जाने उसका प्रतिषेध करना तो शक्य नहीं है, क्योंकि अनिति स्वरूप का निषेध करना अशक्य है ऐसा नियम है ।
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