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________________ अपोहवादः ५४३ यथा च स्वलक्षणादिषु समयासम्भवान्न शब्दार्थत्वं तथाऽपोहेपि । निश्चितार्थो हि समयकृत्समयं करोति । न चापोहः केन चिदिन्द्रियैर्व्यवसीयते; तस्यावस्तुत्वादिन्द्रियाणां च वस्तुविषयत्वात् । नाप्यनुमानेन; वस्तुभूतसामान्यमन्तरेणानुमानस्यैवाऽप्रवृत्तेः । भावार्थ-बौद्ध मत में सामान्य को काल्पनिक माना है, वे सादृश्य को सारूप्य नाम देते हैं इस सारूप्य या सादृश्य को भी वे लोग नहीं मानते अतः यहां अपोहवाद प्रकरण में प्राचार्य कह रहे हैं कि आपके यहां गो शब्द का अर्थ सास्नायुक्त गो पदार्थ न होकर "अगोव्यावृत्ति” होता है, किसी ने “गौः' ऐसा कहा तो उसका अर्थ किया जायगा कि यह सामने स्थित पदार्थ अश्व नहीं है हाथी नहीं है इत्यादि, गो को अन्य पशुओं से पृथक् करना गो शब्द का कार्य है । सो सबसे पहले तो ऐसा प्रतीत ही नहीं होता, गो शब्द सुनते ही सास्नायुक्त पशुका बोध होता है न कि यह अश्व नहीं इत्यादि निषेध रूप ( अपोह रूप ) वस्तुका, सभी पाबाल गोपाल को इसी प्रकार की शाब्दी प्रतीति होती है। फिर भी थोड़ी देर के लिये बौद्ध के अाग्रह से मान लिया जाय कि गो शब्द अगोव्यावृत्ति का वाचक है, किन्तु इसमें प्रश्न होता है कि अगोव्यावृत्तिरूप पदार्थ कौनसा है ? यह तो अभाव रूप है और अभाव में भेद नहीं होता, अब समस्या यह पाती है कि शाबलेयादि अनेक गो व्यक्तियों में गोत्व सामान्य तो है नहीं क्योंकि सामान्य को काल्पनिक मान बैठे हैं, जब गो व्यक्तियों में गोत्व ही नहीं तो वे गो व्यक्तियां किस प्रकार अगो से व्यावृत्त हो सकती हैं ? क्योंकि जैसे अश्वादि में अगोपता है वैसे गो व्यक्तियों में है । बड़ा आश्चर्य है कि गो में गोत्व सामान्य नहीं है और फिर भी उनको अश्वादि से व्यावृत्ति होती है। अश्वादि पशुओं से गो व्यक्तियों को भिन्न करने का कारण कौन होगा यदि उनमें गोत्व सामान्य नहीं माना जाय अत: सामान्य को काल्पनिक मानना और गो आदि शब्दों का अगो व्यावृत्ति आदि रूप अर्थ करना ये दोनों ही सिद्धांत गलत साबित होते हैं । आगे इसी को कह रहे हैं । जिस प्रकार बौद्धाभिमत क्षणिक निरंशभूत स्वलक्षण आदि में संकेत का होना असंभव होने से शब्दार्थपना घटित नहीं होता उसी प्रकार अपोह में भी शब्द और अर्थपना घटित नहीं हो सकता। इसका भी कारण यह है कि “इस शब्द का यह अर्थ है" इस प्रकार जिसको अर्थ का निश्चय हुआ वह पुरुष ही संकेत का ज्ञाता होने से संकेत को करता है, किन्तु अपोह किसी पुरुष के द्वारा इन्द्रियों से जाना नहीं जाता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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