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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे अपि च ये विभिन्नसामान्यशब्दा गवादयो ये च विशेषशब्दाः शावलेयादयस्ते भवदभिप्रायेण पर्यायाः प्राप्नुवन्त्यर्थभेदाभावावृक्षपादपादिशब्दवत् । न खलु तुच्छरूपाभावस्य भेदो युक्तः; वस्तुन्येव संस्पृ(संस)ष्टत्वैकत्वनानात्वादिविकल्पानां प्रतीतेः । भेदाभ्युपगमे वा अभावस्य वस्तुरूपतापत्तिः; तथाहि-ये परस्परं भिद्यन्ते ते वस्तुरूपा यथा स्वलक्षणानि, परस्परं भिद्यन्ते चाऽपोहा इति । न चापोह्यलक्षणसम्बन्धिभेदादपोहानां भेदः; प्रमेयाभिधेयादिशब्दानामप्रवृत्तिप्रसंगात्, तदभिधेयापोहानामपोह्यलक्षणसम्बन्धिभेदाभावतो भेदासम्भवात् । अत्र हि यत्किञ्चिद्वयवच्छेद्यत्वेन आदि शब्द से न प्रवृत्ति हो सकती है और न निवृत्ति हो सकती है। तथा ऐसे तुच्छाभाव रूप प्रसज्य प्रतिषेध अभाव को आप सौगतने माना भी नहीं, यदि मानेंगे तो नैयायिकादि के मत में प्रापका प्रवेश हो जायेगा। तथा जो विभिन्न सामान्य के अभिधायक गो आदि शब्द हैं और जो विशेष के अभिधायक शाबलेय आदि शब्द हैं ये सबके सब आपके अभिप्रायके अनुसार पर्यायवाची शब्द बन जायेंगे ? क्योंकि शब्द केवल प्रसज्य अभावरूप अपोह को कहते हैं अतः सबका वाच्य एक अभाव ही है उनमें कुछ भी अर्थ भेद नहीं रहता जैसे कि “वृक्ष और पादप'' इन शब्दों में अर्थ भेद नहीं रहता। तुच्छाभावरूप अपोह में किसी प्रकार का अर्थ भेद आदि होना तो अयुक्त है। किसी प्रकार का अर्थका भेद आदि भेद तो वस्तुभूत पदार्थ में होता है, क्योंकि संसृष्टपना, एकपना, नानापना इत्यादि भेद तो वस्तु में ही प्रतीत होते हैं ( न कि अभाव में ) यदि अन्यापोह रूप अभाव में भेदको मानना इष्ट है तो उस अभाव के वस्तुरूपता सिद्ध होती है, कैसे सो ही बताते हैंजो परस्पर में भेदको प्राप्त होते हैं वे वस्तुरूप होते हैं जैसे स्वलक्षण वस्तुरूप होने से भेदको प्राप्त होते हैं, अश्वादि निवृत्तिरूप अपोह भी भेद को प्राप्त होते हैं अतः वे वस्तुरूप हैं। अपोह करने योग्य अश्वादि अपोह्य पदार्थरूप सम्बन्धियों के भेद से अपोहों में ( अभावों में ) भेद होता है ऐसा कहना भी अशक्य है, इस तरह मानने से तो प्रमेय, अभिधेय आदि शब्दों की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। आगे इसी का खुलासा करते हैं-जिस प्रकार गो शब्द का अर्थ अगोव्यावृत्ति है उस प्रकार प्रमेय शब्द का अर्थ अप्रमेयव्यावृत्ति है अभिधेय शब्द का अर्थ अनभिधेय व्यावृत्ति है सो ये अनभिधेय आदि अपोह्य नहीं हो सकते क्योंकि इनका अस्तित्व ही नहीं है । अतः अपोह्य रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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