SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 584
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपोहवाद : "गोनिवृत्तिः सामान्यं वाच्यं यैः परिकल्पितम् । गोत्वं वस्त्वेव तैरुक्तमगोपोहगिरा स्फुटम् ॥ १॥ भावान्तरात्मकोऽभावो येन सर्वो व्यवस्थितः । तत्राश्वादिनिवृत्त्यात्मा भावः क इति कथ्यताम् ||२|| नेष्टोऽसाधारणस्तावद्विशेषो निर्विकल्पनात् । तथा च शावलेयादिरसामान्यप्रसंगतः ॥३॥” [ मी० श्लोह० प्रपोह० श्लो० १-३ ] "तस्मात्सर्वेषु यद्रूपं प्रत्येकं परिनिष्ठितम् । गोबुद्धिस्तन्निमित्ता स्याद्गोत्वादन्यच्च नास्ति तत् ॥” [ मी० श्लो० अपोह० श्लो० १० ] द्वितीयपक्षे तु न किंचिद्वस्तु वाच्यं शब्दानामिति श्रतोऽप्रवृत्तिनिवृत्तिप्रसंग: । तुच्छरूपाभावस्य चानभ्युपगमान्न प्रसज्यप्रतिषेधाभ्युपगमो युक्तः; परमतप्रवेशानुषंगात् । Jain Education International ५३६ । वाच्य होता है ऐसा मानना चाहिये । उसी गोत्व सामान्य को आप अगो अथवा अपोह शब्द से कहते हैं तब तो नाम मात्रका भेद रहा कहा भी है- जिन्होंने प्रगो निवृत्ति रूप सामान्य को गो शब्द का वाच्य माना है उन्होंने ग्रपोह इस नाम से गोत्वरूप वस्तु को ही कहा ऐसा समझना चाहिए ||१|| क्योंकि सभी प्रभाव भावांतर स्वभाव वाले माने गये हैं यदि गो शब्दका अर्थ अश्वादि निवृत्तिरूप है तो वह कौनसा पदार्थ है उसको बताना चाहिए ||२|| प्रसाधारणभूत क्षणिक स्वलक्षण को प्रश्वादि निवृत्तिरूप पदार्थ कहते हैं ऐसा मानना भी ठीक नहीं क्योंकि स्वलक्षण रूप विशेष को अपने निर्विकल्प ( शब्द के अगोचर ) स्वीकार किया है, तथा ऐसा मानने से शाबलेयादि को असामान्य मानने का प्रसंग याता है ||३|| इसलिये सभी गो पिण्डों में प्रत्येक में परिसमाप्त होकर जो पदार्थ रहता है और जिसके निमित्त से गोपनेका ज्ञान होता है वह गो शब्द द्वारा कहा जाता है, उस पदार्थ का नाम गोत्व सामान्य ही है इससे भिन्न कुछ भी नहीं || १ || इस प्रकार मीमांसाश्लोकवात्र्तिक नामा ग्रंथ में शब्दका वाच्य विधिरूप अर्थ होता है ऐसा निश्चय किया गया है । पोह सामान्य का वाच्य प्रसज्य लक्षण वाला अभाव है ऐसा दूसरा पक्ष माने तो शब्दों द्वारा कुछ भी वाच्य नहीं होता ऐसा अर्थ निकलता है, फिर तो गो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy