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________________ शब्दनित्यत्ववादः ५१५ बाध्यं न स्यात् । अथास्य प्रत्यक्षरूपतैव नास्ति बाधित विषयत्वात्; तत्प्रकृतेपि समानम्, लूनपुनर्जातनखकेशादिवत्सादृश्यप्रतीत्या तन्नानात्वप्रसाधकानुमानेन चाऽत्राप्येकत्वप्रतीतेर्बाधितविषयत्वाऽविशेषात् । अतोऽयुक्तमेतत् समाधान-सो यह बात प्रकृत गकारादि शब्दों में भी समान रूप से घटित होगी, आगे इसीको बताते हैं - कट कर पुन: उत्पन्न हुए नख और केशादि में एकत्व की प्रतीति कराने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान जिस प्रकार सादृश्य प्रतीति से उन नखादि के नानापने को सिद्ध करने वाले अनुमान ज्ञान द्वारा बाधित होता है, उसी प्रकार गकारादि वर्गों में एकत्व की प्रतीति कराने वाला प्रत्यक्षज्ञान सादृश्य प्रतीति से उन गकारादि के नानापने को सिद्ध करने वाले अनुमान द्वारा बाधित होता है, नखादि के एकत्व को विषय करने वाला प्रत्यक्ष और गकारादि वर्गों के एकत्व को विषय करने वाला प्रत्यक्ष इन दोनों प्रत्यक्षों के विषय समान रूप से बाधित हैं कोई विशेषता नहीं है। भावार्थ-मीमांसक गकार, ककार प्रादि वर्गों को सारे विश्व में एक एक रूप ही मानते हैं। मीमांसक के प्रति यदि प्रश्न किया जाय कि गकारादि वर्ण एक एक ही हैं तो भिन्न भिन्न देश में भिन्न भिन्न व्यक्ति द्वारा एक ही गकारादिका सुनायी देना एवं मुख से उच्चारण करना कैसे होता है ? तो इसका उत्तर देते हैं कि वे वर्ण सर्वत्र एक ही हैं किन्तु उनके व्यंजक कारण पृथक् पृथक् हैं, अतः विभिन्न देशादि में विभिन्न रूप से उपलब्ध होते हैं इत्यादि । जैनाचार्य ने वर्ण के इस व्यंजक कारण का अनेक प्रकार से निरसन किया है, शब्द या वर्ग तालु आदि से प्रगट नहीं किये जाते अपितु नये नये उत्पन्न किये जाते हैं। जैसे नख और केशादिक कट कर पुनः पुनः नये उत्पन्न होते हैं। यदि कदाचित् गकारादि वर्गों में “यह वही गकार है जिसको कल सुना था' इत्यादि रूप एकत्व प्रत्यभिज्ञान हो भी तो वह ज्ञान अनुमान द्वारा बाधित होता है। इस पर मीमांसक का कहना है कि एकत्व प्रत्यभिज्ञान को हम प्रत्यक्ष प्रमाण रूप मानते हैं अत: वह अनुमान द्वारा बाधित नहीं हो सकता, सो यह कथन असत् है, क्योंकि अनुमान से प्रत्यक्षज्ञान बाधित होता हुआ देखा जाता है, प्रत्यक्ष ज्ञान सूर्यादि को स्थिर बताता है किन्तु वह देशांतर गमनरूप अनुमान प्रमाण से बाधित है। संसार में ऐसे प्रत्यक्षज्ञान ( सांव्यावहारिक प्रत्यक्षज्ञान ) होते ही हैं कि जो अनुमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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