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________________ ५१४ प्रमेयकमलमार्तण्डे ततो निराकृतमेतत्-'अत्र ब्रूमो यदा तावज्जले सौर्येण' इत्यादि; स्वप्रदेशस्थतया सवितुग्रहणासिद्ध: । 'चाक्षुषं तेजः प्रतिस्रोतः प्रवत्तितम्' इति चातीवाऽसंगतम्; प्रमाणाभावात् । न हि चक्षुस्तेजांसि जलेनाभिसम्बन्ध्य पुनः सवितारं प्रति प्रतितानि प्रत्यक्षादिप्रमागतः प्रतीयन्ते । यथा च चक्षूरश्मीनां विषयं प्रति प्रवृत्तिर्नास्ति तथा चक्षुरप्राप्यकारित्वप्रघट्टके प्रतिपादितम् । इत्यलमतिविस्तरेण । यच्चान्यदुक्तम्-'देशभेदेन भिन्नत्वम्' इत्यादि; तदप्यसारम्; यतो यदि प्रत्यक्षमेवानुमानस्य बाधकं नानुमानं प्रत्यक्षस्य; तहि चन्द्रार्कादौ स्थैर्याध्यक्षं देशाद्देशान्तरप्राप्तिलिंगजनितगत्यनुमानेन इस प्रकार सूर्य का जल में स्थित प्रतिबिंब सूर्य से पृथक्भूत पदार्थ है ऐसा सिद्ध होने से उसके एकत्व का दृष्टांत देकर शब्द में एकत्व सिद्ध करना खंडित होता है ऐसे ही यह कथन भी खंडित हुआ समझना चाहिये कि- जब जल में सूर्य के तेज के कारण चक्षुका तेज भी स्फुरायमान हो जाता है तब सूर्यबिंब नाना रूप परिवर्तित होता है तथा इसीलिये स्वप्रदेश में स्थितरूप से सूर्य का ग्रहण नहीं हो पाता इत्यादि । आप मीमांसक के उपर्युक्त कथन में "चक्षुका तेज स्फुरमान होकर सूर्यबिंब नाना रूप परिवर्तित होता है" ऐसा कहना तो अत्यंत असम्बद्ध है क्योंकि ऐसा मानने में सर्वथा प्रमाणका अभाव है। क्योंकि चक्षु की किरणें जल से संबद्ध होकर पुनः सूर्य के प्रति प्रवृत्ति करती हुई किसी भी प्रत्यक्षादि प्रमाण से प्रतीत नहीं होती हैं। दूसरी बात यह है कि चक्षु की न कोई किरणें हैं और न वे अपने विषयभूत घट पट आदि पदार्थ के प्रति गमन करती हैं, इस विषय का प्रतिपादन चक्षुप्राप्यकारित्वखण्डन में पहले ही ( प्रथम भाग में ) हो चुका है, अब उस विषय में अधिक नहीं कहना है । मीमांसक ने पूर्व में कहा था कि गकारादि वर्गों में देशभेद से भेद सिद्ध करने वाला अनुमान “वही यह गकारादि है" इस प्रकार के प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित होता है इत्यादि । सो वह असार है, क्योंकि यदि एकांत से प्रत्यक्ष ही अनुमान का बाधक माना जाय अनुमान को प्रत्यक्ष का बाधक नहीं माना जाय तो चन्द्र सूर्य आदि में स्थिरतारूप प्रतीति कराने वाला प्रत्यक्ष देश से देशांतर की प्राप्ति रूप हेतु से जनित गति को सिद्ध करने वाले अनुमान द्वारा बाध्य नहीं हो सकेगा। __ शंका- चन्द्रादि की स्थिरता प्रतीत कराने वाले प्रत्यक्ष में बाधित विषय होने से प्रत्यक्षपना ही नहीं माना जाता ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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