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________________ अर्थकारणतावादः भ्रान्तत्वप्रसङ्गात् । स्थाणुरस्तीति चेत् ; कथं ततः किं पुरुष। पुरुष एवेति पुरुषांशावसाया? अन्यथान्यत्रापि ज्ञानेर्थस्य कारणत्वकल्पना व्यर्था। तन्न विशेषोपि तद्ध तु।। नाप्युभयम् ; उभयपक्षोक्तदोषानुषङ्गात् । ततः संशयादिज्ञानस्यार्थाभावेप्युपलम्भात्कथं तदभावे ज्ञानाभावसिद्धिर्यतोर्थकार्यतास्य स्यात् ? ननु भ्रान्तं तत्तनापलभ्यते, न चान्यस्य व्यभिचारेन्यस्य व्यभिचारोऽतिप्रसङ्गात्; इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम् ; स्वपरग्रहणलक्षणं हि ज्ञानम्, तत्र च यथा सत्याभिमतज्ञानं स्वपरग्राहकं तथा कि “यह पुरुष है या स्थाणु" उस व्यक्तिको अपने सामने पुरुष या स्थाणुका विशेष तो मालूम ही नहीं है, विशेष धर्म वहां है ही नहीं यदि होता तो वह ज्ञान अभ्रांत कहलाता । स्थाणुत्वरूप विशेष धर्म उस ज्ञानमें प्रतीत होता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि यदि विशेष धर्म झलकता तो यह पुरुष है क्या ? पुरुष ही होना चाहिए ! इस तरह पुरुष अंशको प्रतीति क्योंकर होती है ? यदि स्थाणु में अविद्यमान ऐसे पुरुष अंशकी प्रतीति हो सकती है तो पदार्थको ज्ञानका हेतु मानना ही व्यर्थ है, अतः संशय ज्ञानका कारण विशेष धर्म होता है ऐसा कहना भी सिद्ध नहीं होता है । सामान्य और विशेष दोनों धर्म कारण होते हैं ऐसा मानते हैं तो भी गलत होता है, इस मान्यतामें तो दोनों पक्षके दोष आ जायेंगे। इसलिये संशयादिज्ञान पदार्थके अभावमें उपलब्ध होते हैं ऐसा सिद्ध होता है । अतः पदार्थके अभावमें ज्ञान नहीं होता ऐसा कहना सिद्ध नहीं होता उसके प्रसिद्ध होनेसे "ज्ञान पदार्थका कार्य है" इसतरह का कथन असिद्ध हो ही जाता है। शंका:-ये संशयादि ज्ञान भ्रांत हैं अतः बिना पदार्थ के हो जाते हैं, भ्रांत ज्ञानोंमें पदार्थ के साथ रहना व्यभिचरित होनेसे अभ्रांत ज्ञान भी पदार्थके व्यभिचरित होवे ऐसी बात तो है नहीं, यदि अन्यका व्यभिचार अन्यमें लगायेंगे तो अति प्रसंग होगा? फिर तो गोपालघटिकाके धूमको अग्निके साथ व्यभिचरित होता हुआ देखकर पर्वतपर स्थित अग्निसे होनेवाले धूमको भी व्यभिचरित मानना होगा? समाधानः- यह शंका ठीक नहीं, ज्ञानका लक्षण तो स्वपरको जानना है अब इस लक्षणसे युक्त ज्ञानोंमें से जो सत्यरूप स्वीकार किया है वह जिसप्रकार स्वपरका ग्राहक है उसप्रकार केशोण्डुकादिका ज्ञान ( असत्य ज्ञान ) भी स्वपरका ग्राहक है, हां इतनी विशेषता है कि कोई ज्ञान विद्यमान वास्तविक पदार्थका ग्राहक है, क्योंकि उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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