SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 536
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शब्दनित्यत्ववादः अथार्थापत्त्या तेषां प्रतिपत्तिः; तथाहि-शब्दस्तावन्नित्यत्वान्नोत्पद्यते संस्कृतिरेव तु क्रियते । सा च विशिष्टा नोपपद्येत यदि ध्वनयो न स्युः । तदुक्तम् ' शब्दोत्पत्तेनिषिद्धत्वादन्यथानुपपत्तितः । विशिष्टसंस्कृतेर्जन्म ध्वनिभ्यो व्यवसोयते ।।१।। तद्भावभाविता चात्र शक्त्यस्तित्वावबोधिनी। श्रोत्रशक्तिवदेवेष्टा बुद्धिस्तत्र हि संहृता ॥२॥ कुड्यादिप्रतिबन्धोपि युज्यते मातरिश्वनः । श्रोत्रादेरभिघातोपि युज्यते तीव्रत्तिना ॥३॥" [ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १२६-१२६ ] कफांश उपलब्ध नहीं होते उसी प्रकार वायु भी उपलब्ध नहीं होती है। यदि कहा जाय कि वायु के रहते हुए भी स्तिमित भाषी होने के कारण वह उपलब्ध नहीं होता ऐसा मानना पड़ेगा । अतः प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा अथवा अनुमान प्रमाण द्वारा व्यंजक ध्वनियों को प्रतीति होना सिद्ध नहीं होता। मीमांसक-अर्थापत्ति द्वारा ध्वनियों की प्रतीति होती है, इसका विवरण आगे करते हैं-नित्य होने से शब्द तो उत्पन्न किया नहीं जाता, हां उसकी संस्कृति ( संस्कार ) की जाती है, वह संस्कृति विशिष्ट होने के नाते यदि ध्वनियां न होवे तो उत्पन्न नहीं हो सकती, जैसा कि कहा है-शब्द की उत्पत्ति होना निषिद्ध हो चुका है अतः अर्थापत्ति प्रमाण द्वारा निश्चय होता है कि ध्वनियों से विशिष्ट संस्कृति की ही उत्पत्ति होती है ॥१॥ ध्वनियों के होने पर ही विशिष्ट संस्कृति का होना संभव है इस प्रकार की तद्भावभावित्व नामकी जो शक्ति है वही ध्वनियों के अस्तित्वका ज्ञान कराती है, श्रोत्रशक्ति के समान यह शक्ति भी स्वीकार करना इष्ट है, अर्थात् जिस तरह कर्ण में श्रवण शक्ति सिद्ध होती है उसी तरह ध्वनियों में संस्कारोत्पादक शक्ति सिद्ध होती है, क्योंकि इन उभय शक्तियों में शब्द का प्रत्यक्ष ज्ञान उसमें नियत है अर्थात् कर्ण में श्रवण शक्ति और ध्वनियों में संस्कारोत्पादक शक्ति इन दोनों के होने पर ही शब्द का प्रत्यक्ष ज्ञान हो सकता है ।।२।। भित्ति आदि से शब्द के व्यंजक वायु का प्रतिबंध होना भी संगत है अर्थात् शब्द अमूर्त होने से उसका भित्ति आदि से प्रतिबंध होना तो अशक्य है किन्तु तद् व्यंजक वायुका प्रतिबंध तो युक्ति संगत ही है, तथा तीव्र वायु से कर्णादिका अभिघात होना भी युक्ति पूर्ण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy