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प्रमेयकमलमार्तण्डे
प्रसङ्गात् । तत्र ध्वनिप्रतिभासे चापरशब्दकल्पनावैयर्थ्यमित्युक्तम् । अथ स्पार्शनप्रत्यक्षेण ते प्रतीयन्तेस्वकरपिहितवदनो हि वदन् स्वकरसंस्पर्शनेन तान्प्रतिपद्यते, वदतो मुखाग्रे स्थिततूलादेः प्रेरणोपलम्भान दनुमानेनेति; तदप्यसाम्प्रतम्; वायुवत्ताल्बादिव्यापारानन्तरं कफांशानामप्युपलम्भेन शब्दाभिव्यञ्जकत्वप्रसङ्गात् । वक्तृवक्त्रप्रदेश एवैषां प्रक्षयेण श्रोतृश्रोत्रप्रदेशे गमनाभावान्न तत्; इत्यन्यत्रापि समानम् । न हि वायवोपि तत्र गच्छन्तः समुपलभ्यन्ते। शब्दप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्या प्रतिपत्तिस्तुभयत्रसमाना । यथा च स्तिमितभाषिणो न कफांशोपलम्भस्तथा वायूपलम्भोपि नास्ति । स्तिमितस्य कल्पनमुभयत्र समानम् । तन्न प्रत्यक्षेणानुमानेच वा तत्प्रतिपत्तिः ।
प्रतीति नहीं होती, जैसे कान में शब्द सुनाई देते हैं वैसे ध्वनियां सुनाई नहीं देती, यदि सुनाई देती तो विवाद ही नहीं रहता। दूसरी बात यह है कि यदि कान में ध्वनियां सुनाई देती हैं तो शब्द को मानना व्यर्थ है क्योंकि शब्द का कार्य ध्वनि द्वारा सम्पन्न हो जाता है इस विषय में पहले कह चुके हैं ।
__ मीमांसक-ध्वनियां स्पर्शनज प्रत्यक्ष के द्वारा प्रतीत होती हैं, इसी का खुलासा करते हैं - अपने हाथ से मुख को ढककर बोलता हुया पुरुष अपने हाथ के स्पर्श से उन ध्वनियों को जान लेता है, तथा अन्य पुरुष की ध्वनि को बोलने वाले के मुख के आगे स्थित कपासादि के हिलने से अनुमान द्वारा जान लिया जाता है ?
जैन-यह कथन असार है क्योंकि तालु आदि के व्यापार के अनंतर जिस प्रकार वायु उपलब्ध होतो है उस प्रकार कफ के अंश भी उपलब्ध होते हैं अतः उन्हें भी शब्द के अभि व्यंजक कारण मानने का प्रसंग आता है मीमांसक - कफ के अंश बोलने वाले के मख प्रदेश में नष्ट हो जाते हैं सुनने वाले के कान तक नहीं जाते अतः उनको शब्द के व्यंजक कारण नहीं मानते ?
जैन-वायु के विषय में भी यही बात है वह भी कान के प्रदेश में जाती हुई उपलब्ध नहीं होती है।
मीमांसक - व्यंजक वायु नहीं होती तो शब्द की प्रतीति नहीं हो सकती थी, इस प्रकार की अन्यथानुपपत्ति से उसकी सिद्धि होती है ?
जैन-यही अन्यथानुपपत्ति कफांश में भी हो सकती है। तथा जिस प्रकार स्तिमितभाषी (मुख को अल्प मात्रा में खोलकर धीमें स्वर में बोलने वाला ) पुरुष के
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