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________________ प्रमेयकमल मार्त्तण्डे केवला तदा प्रतिभासते' इत्यभ्युपगमात्, अन्यथा कि लक्षितलक्षणया ? न च व्यक्त्यनधिगमे तत्संबंधाधिगमः; द्विष्ठत्वात्तस्य । अथ पूर्वमसौ प्रतीतः तथापि तदेवासौ भवतु । न ह्येकदा तत्सम्बन्धेऽन्यदाप्यसौ भवत्यतिप्रसङ्गात् । न च जातेर्विशेषनिष्ठतेव स्वरूपम्; व्यक्त्यन्तराले तत्स्वरूपाऽसत्त्वप्रसङ्गात् । तत्कथं व्यक्त्यऽविनाभावोऽस्याः ? ४७४ किंच, सर्वदा जातिर्व्यक्तिनिष्ठेति प्रत्यक्षेण प्रतीयते श्रनुमानेन वा ? प्रत्यक्षेण चेटिक युगपत्, क्रमेण वा ? तत्राद्यपक्षोऽयुक्तः; सर्वव्यक्तीनां युगपदप्रतिभासनात् । न च तासामप्रतिभासे तथा संबंधावायोऽतिप्रसंगात् । नापि द्वितीयः क्रमेण निरवधेः सकलव्यक्तिपरम्परायाः परिच्छेत्तुमशक्तेः । कदाचित्तु जातेर्व्यक्तिनिष्ठताधिगमे सर्वत्र सर्वदा न तन्निष्ठताधिगमः स्यात् । तन्न प्रत्यक्षेण जातस्त भी जाना जाता भी ठीक नहीं, उन दोनों का सम्बन्ध कब जाना जाता है, जब शब्द से जाति जानी है उसी वक्त या पहले ? उसी वक्त अर्थात् शब्दोच्चारण के समय ही जाना जाता है, कहो तो गलत है, उस वक्त सिर्फ जाति (सामान्य) प्रतीत होती है ऐसा आप स्वयं मानते हैं तथा यदि शब्दोच्चारण के समय में ही सामान्यवत् विशेष है तो उस सामान्य को लक्षित लक्षणा कैसे कहा है ? “ लक्षितेन ( ज्ञानेन ) सामान्येन लक्षणा - विशेष प्रतिपत्तिः तया" इस प्रकार 'लक्षित लक्षरणा' शब्द की निष्पत्ति है । अर्थात् सामान्य के ज्ञात होने पर उससे विशेष के जानने को लक्षित लक्षणा कहते हैं, अतः दोनों को एक साथ जाना है ऐसा नहीं कह सकते । जब विशेष को उस समय जाना ही नहीं तब दोनों का सम्बन्ध भी कैसे जाने ? संबंध तो दो में होता है ? दूसरा पक्ष - शब्दोच्चारण के पहले ही दोनों का संबंध जाना हुआ रहता है ऐसा कहो तो जिस समय उस संबंध को जाना था उस समय ही वह रहे ? अन्य समय में उसको क्यों माने ? एक किसी काल में संबंध को जान भी लेवे तो उसको अन्य काल में नहीं जोड़ना चाहिए ? ग्रन्यथा प्रतिप्रसंग प्रायेगा ? घट पट का एक बार संबंध देखा या जाना तो उनको हमेशा संबंधित ही मानना पड़ेगा ? मात्र विशेष में निष्ठ रहना ही सामान्य का लक्षण नहीं है । यदि ऐसा होता तो व्यक्ति व्यक्ति के अंतराल में सामान्य के स्वरूप का अभाव होने का प्रसंग श्राता है । अतः सामान्य का विशेष के साथ अविनाभाव है यह किस प्रकार कह सकते हैं ? तथा सामान्य सर्वदा विशेष में निष्ठ रहता है ऐसा प्रत्यक्ष से प्रतीत होता है यह बताना होगा प्रत्यक्ष से कि क्रम से प्रथम पक्ष कहना प्रतीत होता है कहो तो गलत होगा क्योंकि सब कि अनुमान से प्रतीत होता है दोनों को एक साथ जानते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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