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________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे ननु वेदे कर्तृ सद्भावाभ्युपगमे तत्कर्तुः पुरुषस्यावश्यं तदनुष्ठानसमये अनुष्ठातोरणाम निश्चितप्रामाण्यानां तत्प्रामाण्यप्रसिद्धये स्मरणं स्यात् । ते ह्यदृष्टफलेषु कर्मस्वेवं निःसंशयाः प्रवर्त्तन्ते । यदि तेषां तद्विषयः सत्यत्वनिश्चयः, सोपि तदुपदेष्टुः स्मरणात्स्यात् । यथा पित्रादिप्रामाण्यवशात्स्वयमदृष्ट फलेष्वपि कर्मसु तदुपदेशात्प्रवर्त्तन्ते 'पित्रादिभिरेतदुपदिष्टं तेनानुष्ठीयते, एवं वैदिकेष्वपि कर्मस्वनुष्ठीयमानेषु कर्त्तुं : स्मरणं स्यात् । न चाभियुक्तानामपि वेदार्थानुष्ठातृणां त्रैवरिकानां तत्स्मरणमस्ति । तथा चैव प्रयोगः - कर्तुः स्मरणयोग्यत्वे सत्यस्मर्यमाणकर्तृ कत्वादपौरुषेयो वेद:' । तदप्यसम्बद्धम्; श्रागमान्तरेऽप्यस्य हेतोः सद्भावबाधकप्रमाणाऽसम्भवेन सद्भावसम्भवतः सन्दिग्ध विपक्षव्यावृत्तिकत्वेनानैकान्तिकत्वात् । ४२८ मीमांसक - बात यह है कि वेदकर्ताका सद्भाव मानते हैं तो उस वेदकर्त्ता का स्मरण उन पुरुषोंको अवश्य होना चाहिये जिनको कि वेदमें लिखित क्रियाका अनुष्ठान करना है, वे अनुष्ठान करने वाले पुरुष पहले तो वेदकी प्रमाणताको जानने वाले नहीं होते हैं जब वे उसकी प्रमाणताका निश्चय करते हैं तब ग्रनुष्ठायक बनते हैं क्योंकि जब तक अनुष्ठानका फल नहीं जाना है तब तक उसमें निःसंशयरूप प्रवृत्ति नहीं हो सकती, इस प्रकार वेदकी प्रमाणताका निश्चय होना चाहिए यह बात सिद्ध हुई, उस वेद विषयक प्रमाणताका निश्चय अनुष्ठायक पुरुषोंको किसप्रकार होगा यह देखना है, वह निश्चय तो वेदका उपदेश देने वाले पुरुषका स्मरण होने से होगा, जैसे कि जिन क्रियायोंका फल अज्ञात है उन क्रियायोंमें अपने माता पिताके प्रमाणता के निमित्तसे क्रिया संबंधी उपदेशको पाकर प्रवृत्ति होती है कि पिताजीने इस प्रकार बताया था [ ऐसी क्रिया बतलायी थी ] इत्यादि, फिर तदनुसार वे पुत्रादि अनुष्ठान में प्रवृत्ति करते हैं । ठीक इसीप्रकार वैदिक क्रियानुष्ठान करते समय भी वेद कर्त्ताका स्मरण होना चाहिए किन्तु वेद विहित क्रियानुष्ठानोंमें प्रवृत्त हुए त्रैवरिक पुरुषोंको ऐसा स्मरण ज्ञान होता तो नहीं ! इसीसे अनुमान होता है कि वेदकर्त्ता स्मरण होने योग्य होकर भी स्मरण में नहीं ग्राता अतः स्मर्यमारण होनेसे वेद पौरुषेय है । जैन - यह मीमांसक का विस्तृत कथन असंबद्ध प्रलाप मात्र है, आपका अस्मर्यमाण कर्तृत्व नामा हेतु बौद्धादिके पौरुषेय श्रागममें जाना संभव है उसका उस विपक्षीभूत पौरुषेय आगममें जानेमें कोई बाधक प्रमाण तो दिखायी नहीं देता अतः यह हेतु संदिग्ध विपक्ष व्यावृत्ति नामा प्रनैकांतिक हेत्वाभास बनता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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