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________________ ४१२ प्रमेयकमलमार्तण्डे नास्त्यत्र समतुलायामुन्नामो नामानुपलब्धेः ।।८।। इति सहचरानुपलब्धिः । अथानुपलब्धिः प्रतिषेधसाधिकैवेति नियमप्रतिषेधार्थ विरुद्ध त्याद्याहविरुद्धानुपलब्धिः विधौ त्रेधा विरुद्धकार्यकारणस्वभावानुपलब्धिभेदात् ।।८६।। विधेयेन विरुद्धस्य कार्यादेरनुपलब्धिविधौ साध्ये सम्भवन्ती त्रिधा भवति-विरुद्ध कार्यकारणस्वभावानुपलब्धिभेदात् ।। तत्र विरुद्धकार्यानुपलब्धिर्यथा यथास्मिन्प्राणिनि व्याधिविशेषोम्ति निरामयचेष्टानुपलब्धेः ॥८७।। आमयो हि व्याधिः, तेन विरुद्धस्तदभावः, तत्कार्या विशिष्टचेष्टा तस्या अनुपलब्धिाधिविशेषास्तित्वानुमानम् । सहचर अनुपलब्धि हेतुका उदाहरण-- नास्त्यत्र समतुलाया मुन्नामो नामानुपलब्धेः ।।८।। सूत्रार्थ-इस तुलामें उन्नाम-ऊँचापना नहीं क्योंकि नाम-नीचापनकी अनुपलब्धि है। अनुपलब्धिरूप हेतु केवल प्रतिषेधरूप साध्यको ही सिद्ध करता है ऐसा किसी का मंतव्य है उस नियम का निषेध करनेके लिए अग्रिम सूत्र अवतरित होता हैविरुद्धानुपलब्धिः विधौ त्रेधा विरुद्ध कार्य कारण स्वभावानुपलब्धिभेदात् ।।८६।। सूत्रार्थ-विधिरूप (अस्तित्वरूप) साध्यके रहनेपर विरुद्ध अनुपलब्धि हेतुके तीन भेद होते हैं विरुद्ध कार्यानुपलब्धि, विरुद्धकारणानुपलब्धि, विरुद्धस्वभावानुपलब्धि । साध्यके विरुद्ध कार्यादिकी अनुपलब्धि होना रूप हेतु उक्त तीन प्रकारका है। विरुद्धकार्यानुपलब्धि हेतुका उदाहरणयथास्मिन् प्राणिनि व्याधिविशेषोऽस्ति निरामय चेष्टानुपलब्धेः ।।८७॥ सूत्रार्थ--जैसे इस प्राणीमें रोगविशेष है क्योंकि निरोगके समान चेष्टा नहीं करता । आमय रोगको कहते हैं उस आमयके विरुद्ध उसका प्रभाव निरामय कहलाता है निरामय अवस्थाका कार्य विशिष्ट चेष्टा है उसकी अनुपलब्धि होनेसे रोगके अस्तित्व का अनुमान लग जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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