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________________ ४१० प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रदर्शनेन व्यवहारः प्रसाध्यते। दृश्यतेहि विशाले गवि सास्नादिमत्त्वात्प्रवत्तितगोव्यवहारो मूढमतिविशङ्कटे सादृश्यमुत्प्रेक्षमाणोपि न गोत्यवहारं प्रवर्तयतीति विशङ्कटे वा प्रवत्तितो गोव्यवहारो न विशाले, स निमित्तप्रदर्शनेन गोव्यवहारे प्रवर्त्यते । सास्नादिमन्मात्रनिमित्तको हि गोव्यवहारस्त्वया प्रवत्तितपूर्वो न विशालत्वविशङ्कटत्वनिमित्तक इति। तथा महत्यां शिशपायां प्रवत्तितवृक्षव्यवहारो मूढमतिः स्वल्पायां तस्यां तद्वयवहारमप्रवर्तयन्निमित्तोपदशनेन प्रवर्त्यते वृक्षोयं शिंशपात्वादिति । व्यापकानुपलब्धिर्यथा कि-यहां सत्त्वमें रजोधर्म नहीं है क्योंकि उपलब्धि लक्षण प्राप्त होकर भी अनुपलब्धि है। इस तरहका अनुपलंभरूप असत्का व्यवहार उक्त अनुमानमें भी है इसप्रकार निमित्त प्रदर्शन द्वारा घटाभावका व्यवहार प्रसाधित किया जाता है। देखा भी जाता है कि-जिस मूढमतिको विशाल बैलमें (अथवा गायमें) सास्नादि हेतु द्वारा बैलपनेका व्यवहार प्रवत्तित किया जाता है अर्थात् इस पशुके गले में चर्म लटक रहा है इसे सास्ना कहते हैं जिसमें ऐसी सास्ना होती है उसे बैल ( या गाय ) कहते हैं ऐसा किसीने एक विशाल बैलको दिखलाकर मूढमतिको समझाया, पुनश्च वह मूढमति छोटे बैलको देखता है उसमें उसे सास्नादि दिखायी देती है तो भी वह मूढ बैलपनेका व्यवहार नहीं करता ( अर्थात् यह बैल है ऐसा नहीं समझता है ) अथवा किसी मूढको छोटे बैलमें शुरुवातमें बैलपने का ज्ञान कराया था वह विशाल बैलमें बैलपनेको नहीं जान रहा है उस मूढमति पुरुषको सास्नादि निमित्तको दिखलाकर गो व्यवहारमें प्रवत्तित कराया जाता है । अर्थात् बैलपनेका व्यवहार केवल सास्ना निमित्तक है तुम्हारेको पहले जो बैल में प्रवृत्ति करायी थी वह केवल सास्ना निमित्तक थी विशाल या छोटेपनेकी निमित्तक नहीं थी, अर्थात् विशाल हो चाहे छोटा हो जिस पशुमें सास्ना होती है उसे बैल अथवा गाय कहते हैं इससे गोत्वका व्यवहार-बैल या गायका कार्य लिया जाता है इत्यादि रूपसे मूढको समझाते हैं। तथा बड़े शिंशपावृक्षमें शिशपावृक्षत्वका व्यवहार जिसको प्रवत्तित कराया है वह मूढमति छोटे शिशपावृक्षमें उसका व्यवहार नहीं करता तो उसे शिशपापनरूप निमित्त दिखलाकर प्रवृत्ति करायी जाती है कि यह शिशपारूप होनेसे वृक्ष है । इसप्रकार निश्चय हुआ कि अनुपलब्धिरूप हेतु कार्यकारी है । व्यापकानुपलब्धि हेतुका उदाहरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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