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________________ अविनाभावादीनां लक्षणानि ३६७ दप्यनुपयोगात् । तेनारिष्टादिकरणे पूर्वनिष्पन्नस्य पश्चादुपजायमानेन तेन किं क्रियत इत्युक्तम् । अथाऽनिष्पन्न किञ्चिदस्ति; तत्रापि पूर्ववच्च नवस्था च । ननु यद्यत्र कार्यकारणभावो न स्यात्कथं तहि एकदर्शनादन्यानुमानमिति चेत्; 'अविनाभावात्' इति ब्रूमः । तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणप्रतिबन्धेप्यविनाभावादेव गमकत्वम् । तदभावे वक्तृत्वतत्पुत्रत्वादेस्तादात्म्यतदुत्पत्तिप्रतिबन्धे सत्यपि असर्वज्ञत्वे श्यामत्वे च साध्ये गमकत्वाप्रतीतेः । तदभावेपि चाविनाभावप्रसादात् कृत्तिकोदय-चन्द्रोदय-उद्गृहीताण्डकपिपीलिकोत्सर्पणएकाम्रफलोपलभ्यमानमधुररसस्वरूपाणां हेतूनां यथाक्रमं शकटोदय-समानसमयसमुद्रवृद्धि-भाविवृष्टि-समसमयसिन्दूरारुणरूपस्वभावेषु साध्वेषु गमकत्वप्रतीतेश्च । तदुक्तम् बौद्ध-अरिष्ट और भावी मरणमें यदि कार्यकारण भाव न माने तो उनमेंसे एकको देखनेसे दूसरेका अनुमान किस प्रकार हो जाता है ? जैन-अविनाभाव होनेसे एकको देखकर दूसरेका अनुमान होता है। जहां पर तादात्म्य या तदुत्पत्ति लक्षण वाले संबंध होते हैं उनमें भी अविनाभावके कारण ही परस्परका गमकपना सिद्ध होता है। अविनाभावके नहीं होनेसे ही वक्तृत्व तत्पुत्रत्व आदि हेतु तादात्म्य और तदुत्पत्तिके रहते हुए भी असर्वज्ञत्व और श्यामत्व रूप साध्यके गमक नहीं हो पाते । और तादात्म्य तथा तदुत्पत्ति नहीं होने पर भी केवल अविनाभावके प्रसादसे कृतिकोदय हेतु, चन्द्रोदय हेतु तथा उद्गृहीत-अंडक पिपीलिका उत्सर्पण-अर्थात् अंडेको लेकर चींटियोंका निकलना रूप हेतु, एक पाम्रफल में उपलब्ध हुआ मधुररस स्वरूप हेतु, इतने सारे हेतु यथाक्रमसे अपने अपने साध्यभूत रोहिणी उदय, समान समयकी समुद्र वृद्धि, भावी वर्षा, समान समयका सिंदूरवत् लालवर्ण को सिद्ध करते हुए प्रतीतिमें पाते हैं । भावार्थ-एक मुहर्त्तके अनंतर रोहिणी नक्षत्रका उदय होगा क्योंकि कृतिका नक्षत्रका उदय हो रहा है। इस अनुमानके कृतिकोदय हेतुमें साध्यके साथ तादात्म्य और तदुत्पत्ति संबंध नहीं है फिर भी यह स्वसाध्यभूत रोहिणी उदयका गमक अवश्य है, इसीप्रकार समुद्र की वृद्धि अभी जरूर हो रही क्योंकि चन्दमाका उदय हुग्रा है, वर्षा होनेवाली है क्योंकि चींटियां अंडे लेकर निकल रही है इत्यादि तथा सिंदूरके समान लाल रंग वाले एक आमको पहले किसीने खाया था पीछे प्रकाश रहित स्थान पर किसी प्रामको खाया तो उसके मधुर रससे अनुमान प्रवृत्त होता है कि यह ग्राम सिंदूर वर्णी है क्योंकि मधुर रसवाला है, इन अनुमानोंके हेतु तादात्म्य तदुत्पत्तिसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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