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________________ अविनाभावादीनां लक्षणानि ३८३ बालव्युत्पत्त्यर्थं तत्त्रयोपगमे शास्त्र एवासौ न वादेऽनुपयोगात् ॥४६।। बालव्युत्पत्त्यर्थं तत्त्रयोपगमे दृष्टान्तोपनयनिगमनत्रयाभ्युपगमे, शास्त्र एवासौ तदभ्युपगमः कर्तव्यः न वादेऽनुपयोगात् । न खलु वादकाले शिष्या व्युत्पाद्यन्ते व्युत्पन्नप्रज्ञानामेव वादेऽधिकारात् । शास्त्रे चोदाहरणादौ व्युत्पन्नप्रज्ञा वादिनो वादकाले ये प्रतिवादिनो यथा प्रतिषद्यन्ते तान् तथैव प्रतिपादयितु समर्था भवन्ति, प्रयोगपरिपाटयाः प्रतिपाद्यानुरोधतो जिनपतिमतानुसारिभिरभ्युपगमात् । तत्र तद्व्युत्पादनार्थं दृष्टान्तस्य स्वरूपं प्रकारं चोपदर्शयति दृष्टान्तो द्वधाऽन्वयव्यतिरेकभेदात् ।।४७।। हो जाती है अतः उनको दृष्टांतादि का कथन करना व्यर्थ है किन्तु अव्युत्पन्न प्रज्ञावाले पुरुषोंको व्युत्पन्न करानेके लिए दृष्टान्तादिक व्यर्थ नहीं होते ? उपर्युक्त शंकाका समाधान करते हैंबालव्युत्पत्यर्थं तत् त्रयोपगमे शास्त्र एवासौ न वादेऽनुपयोगात् ।।४६।। . सूत्रार्थ - बाल बुद्धिवाले पुरुषोंके जानकारीके लिए दृष्टांत आदि तीनों अंगोंको स्वीकार किया जाता है किन्तु वह स्वीकृति शास्त्रके समय है वादके समय नहीं, वादमें दृष्टान्तादि तो अनुपयोगी है । यदि दृष्टांत उपनय और निगमनको स्वीकार करना है तो वह शास्त्र चर्चा में स्वीकार करना चाहिए । वाद कालमें नहीं। इसका कारण यह है कि वादकालमें शिष्योंको व्युत्पन्न नहीं बनाया जाता। वादका अधिकार तो व्युत्पन्न बुद्धिवालोंको ही है । शास्त्रमें उदाहरण प्रादि रहते हैं उसमें जो निपुण हो जाते हैं वे वादीगण वाद करते समय सामनेवाले प्रतिवादो पुरुष जिसप्रकारसे समझ सके उनको उसी प्रकारसे समझाने में समर्थ हुआ करते हैं, उस समय जितने अनुमानांगसे प्रयोजन सधता है उतने अंगका प्रयोग किया जाता है, क्योंकि प्रयोग परिपाटी तो प्रतिपाद्यके अनुसार होती है ऐसा जिनेन्द्रमतका अनुसरण करनेवालोंने स्वीकार किया है। ___अब बाल बुद्धिको व्युत्पन्न करानेके लिए दृष्टांतका स्वरूप तथा प्रकार कहते हैं दृष्टांतो द्वधा अन्वय व्यतिरेक भेदात् ।।४७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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