SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अविनाभावादीनां लक्षणानि ३८१ साधनं साध्यं साधयेत् ? तत्रापि दृष्टान्तेपि तस्यां व्याप्तौ विप्रतिपत्तो सत्यां दृष्टांतान्तरान्वेषणेऽनवस्थानं स्यात् । ___नापि व्याप्तिस्मरणार्थं तथाविधहेतुप्रयोगादेव तत्स्मृतेः ॥४१॥ नापि व्याप्तिस्मरणार्थं दृष्टान्तोपादानं तथाविधस्य प्रतिपन्नाविनाभावस्य हेतो: प्रयोगादेव तत्स्मृतेः । एवं चाप्रयोजनं तदुदाहरणम् । तत्परमभिधीयमानं साध्यधर्मिणि साध्यसाधने सन्देहयति ।।४२।। कुतोऽन्यथोपनयनिगमने ? ॥४३॥ परं केवलमभिधीयमानं साध्यसाधने साध्यमिणि सन्दहयति सन्देहवती करोति । कुतोऽन्यथोपनयनिगमने ? नहीं है । यदि ऐसा नहीं होता तो अन्यत्र स्थान पर हेतु स्वसाध्यको कैसे सिद्ध करता ? तथा दृष्टांत में भी व्याप्तिके विषयमें विवाद हो जाय तो अन्य दृष्टांतकी खोज करनी पड़नेसे अनवस्था आयेगी। नापि व्याप्ति स्मरणार्थं तथाविध हेतु प्रयोगादेव तत्स्मृतेः ।।४१।। सूत्रार्थ – व्याप्तिका स्मरण कराने के लिए भी उदाहरणकी जरूरत नहीं, उसका स्मरण तो तथाविध हेतुके प्रयोगसे ही हो जाया करता है। व्याप्ति स्मृतिके लिये दृष्टांतका ग्रहण भी व्यर्थ है, क्योंकि जिसका साध्याविनाभाव ज्ञात है ऐसे हेतुके प्रयोग से ही व्याप्ति स्मरण हो जाता है। इस प्रकार उदाहरण प्रयोजनभूत नहीं है ऐसा सिद्ध हुआ। तत् परमभिधीयमानं साध्यमिणि साध्यसाधने संदेहयति ।।४२।। कुतोऽन्यथोपनयनिगमने ।।४३।। सूत्रार्थ-तथा केवल उदाहरणको कहनेसे साध्यधर्मीमें साध्यसाधनके बारेमें संशय उत्पन्न होता है। यदि ऐसा नहीं होता तो उदाहरणके अनंतर ही उपनय और निगमनके प्रयोगकी आवश्यकता किस तरह होती ? अभिप्राय यह कि बाल प्रयोगरूप अनुमानमें पक्ष हेतु और उदाहरणके अनंतर तत्काल ही उपनय और निगमनका प्रयोग किया जाता है, केवल उदाहरणका प्रयोग करे और आगेके उपनयादि को न कहे तो साध्यसाधन संदेहास्पद हो जाते हैं (अर्थात् ये धूम तथा अग्निरूप साध्यसाधन महानस के समान है या अन्य है ? इसप्रकार केवल उदाहरणके प्रयोग से संदेह बना रहता है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy