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अविनाभावादीनां लक्षणानि
निष्टं हि सर्वथा नित्यत्वं शब्दे जैनस्य । श्रश्रावरणत्वं तु प्रत्यक्षबाधितम् । श्रादिशब्देनानुमानादिबाधितपक्षपरिग्रहः । तत्रानुमानबाधितः यथा - नित्यः शब्द इति । श्रागमबाधितः यथा- प्रेत्याऽसुखप्रदो धर्म इति । स्ववचनबाधितः यथा - माता मे बन्ध्येति । लोकबाधितः यथा - शुचि नरशिरःकपालमिति । तयोरनिष्टाध्यक्षादिबाधितयोः साध्यत्वं मा भूदितीष्टाबाधितवचनम् ।
ननु यथा शब्दे कथञ्चिदनित्यत्वं जैनस्येष्टं तथा सर्वथाऽनित्यत्वमाकाशगुणत्वं चान्यस्येति तदपि साध्यनुषज्यते । न च वादिनो यदिष्टं तदेव साध्यमित्यभिधातव्यम्; सामान्याभिधायित्वेनेष्टस्यान्यत्राप्यविशेषात् । इत्याशङ्कापनोदार्थमाह
न चासिद्धवदिष्टं प्रतिवादिनः || २३ ||
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सूत्रार्थ -- अनिष्ट पदार्थ एवं प्रत्यक्षादिप्रमाणसे बाधितपदार्थ साध्यरूप मत होवे एतदर्थ 'इष्ट' और 'अबाधित' ये दो विशेषण साध्य पदके साथ प्रयुक्त किये हैं । जैसे शब्द में सर्वथा नित्यपना सिद्ध करना जैनके लिए अनिष्ट है । तथा शब्द में अश्रावणत्व (कर्ण गोचर न होना) मानना प्रत्यक्षसे बाधित है। सूत्रोक्त 'आदि' शब्द द्वारा अनुमानादि प्रमाणसे बाधित पक्षवाले साध्यका भी ग्रहण हो जाता है, अर्थात् जो साध्य अनुमानादिसे बाध्य हो उसको भी साध्य नहीं कहते । जैसे " शब्द नित्य है ” ऐसा साध्य बनाना अनुमान बाधित है । "धर्म परलोकमें दुःखदायक है" ऐसा कहना ग्राम बाधित है । जो साध्य ग्रपने ही वचनसे बाधित हो उसे स्ववचन बाधित कहते हैं जैसे - मेरी माता वंध्या है | जो लोक व्यवहार में बाधित हो उसे लोक बाधित साध्य कहते हैं जैसे मनुष्यका कपाल शुचि है । इस प्रकारके अनिष्ट एवं प्रत्यक्षादिसे बाधित वस्तुको साध्यपना न हो इस कारण से इष्ट और अबाधित विशेषण साध्यपदमें प्रयुक्त हैं ।
शंका - जिसप्रकार जैनको शब्दमें कथंचित् अनित्यपना मानना इष्ट है उसी प्रकार अन्य वैशेषिकादि परवादियोंको उसमें सर्वथा अनित्यत्व और आकाशगुणत्व मानना इष्ट है अतः उसको साध्यत्वका प्रसंग प्राप्त होता है । ऐसा तो कह नहीं सकते कि जो वादीको इष्ट हो वही साध्य बने, क्योंकि सामान्यरूपसे कहा गया इष्ट विशेषण अन्यत्र ( प्रतिवादी में ) भी संभव है कोई विशेषता नहीं है ?
समाधान- अब इसी शंकाका परिहार करते हुए श्री माणिक्यनंदी आचार्य सूत्र कहते हैं
न चासिद्धवदिष्टं प्रतिवादिनः || २३ ||
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