SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 407
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे साधनस्य प्रयोगात् । सामान्यतो दृष्टस्याऽपि पूर्ववत्त्वप्रतीतेः; क्वचिद्देशान्तरप्राप्तेर्गतिमत्त्वाविनाभाविन्या एव देवदत्तादौ प्रतिपत्तेः, अन्यथा तदनुमानाप्रवृत्तेः । परिशेषानुमानमेव वा सर्वम्; पूर्ववतोपि धूमात्पावकानुमानस्य प्रसक्ताऽपावकप्रतिषेधात्प्रवृत्तिघटनात्. तदप्रसक्तौ विवादानुपपत्तेरनुमानवैयर्थ्य स्यात् । सामान्यतो दृष्टस्यापि देशान्तरप्राप्तेरादित्यगत्यनुमानस्य तदगतिमत्त्वस्य प्रसक्तस्य प्रतिषेधादेवोपपत्त: । सकलं सामान्यतो दृष्टमेव वा; सर्वत्र सामान्ये नैव लिंगलिंगिसम्बन्धस्य प्रतिपत्तः, विशेष पदार्थरूप भी नहीं है, अतः परिशेष न्यायसे शेष बचे गुण नामा पदार्थ में ही शब्दका अंतर्भाव होता है इसप्रकार सामान्य पदार्थ द्रव्य पदार्थ आदि रूप होनेका प्रसंग प्राप्त था उसका प्रतिषेध करके परिशेष गुणमें शब्दका अंतर्भाव करना शेषवत् परिशेषानुमान का दृष्टांत है। सामान्यतो दृष्टानुमान-साध्य साधन धर्मकी सामान्यसे प्रतिपत्ति होना सामान्यतोदृष्ट अनुमान कहलाता है, जैसे सूर्य गमन शील है क्योंकि देशसे देशांतर में प्राप्त होता है, जिस प्रकार देवदत्त देशांतर में प्राप्त होनेसे गमनशील प्रसिद्ध है। यहां देवदत्त में सामान्यपनेसे पाये जाने वाले गमनत्व और देशांतरप्राप्तत्व धर्मको देखकर उनको सूर्य में सिद्ध किया अतः यह सामान्यतो दृष्टानुमान है। जैनाचार्यका कहना है कि ये सब अनुमान तभी प्रसिद्ध हो सकते हैं जब आप अविनाभाव संबंधका ग्राहक तर्क प्रमाणको स्वीकार करे । इन पूर्ववत् पूर्व प्रादि अनुमानोंका अंतर्भाव हमारे कारणकारणानुमान प्रादिमें हो जाता है। आगे इनका वर्णन करेंगे । अस्तु । दूसरी बात यह है कि यौगाभिमत अनुमानोंका प्रभेद घटित भी नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक अनुमानका हेतु ( साधन या लिंग ) पूर्ववत् (पूर्व में ज्ञात) ही होता है, अतः परिशेष अनुमानमें पूर्ववत्पना है-परिशिष्ट की प्रतिपत्तिका अविनाभावी प्रसक्तप्रतिषेध होता है वह पूर्व में ही कहींपर निर्णीत रहता है और विवादग्रस्त परिशिष्टके प्रतिपत्तिके लिये वह साधनरूपसे प्रयुक्त होता है, इसप्रकार साधन पूर्ववत् होनेसे परिशेषानुमान भी पूर्ववत् सरीखा ही है। सामान्यतोदृष्ट अनुमानमें भी पूर्ववत्पना प्रतीत होता है-गतिमत्वकी अविनाभावी रूप देशांतर प्राप्ति नामा हेतु देवदत्तादिमें पहलेसे ही ज्ञात रहता है, अर्थात् देवदत्त में गमन क्रियाके साथ देशांतर प्राप्तिको देखकर ही सूर्यमें गमनत्वका निश्चय करते हैं अन्यथा वह अनुमान प्रवृत्त ही नहीं होता। अथवा सभी अनुमान परिशेषरूप ही दृष्टिगोचर होते हैं, क्योंकि धूमसे होनेवाले अग्नि का अनुमान भी पूर्ववत्के समान प्रसक्त अनग्निका प्रतिषेध करके प्रवृत्त होता है, यदि अनग्निके प्रतिषेधका प्रसंग नहीं होवे तो विवाद ही नहीं रहे और जिसमें विवाद नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy