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________________ पूर्ववदाद्यनुमानवैविध्य निरासः ३६१ मान्येन दृष्टम्, यथा गतिमानादित्यो देशाद्देशान्तरप्राप्तेर्देवदत्तवदिति । तदप्येतेन प्रत्याख्यातम्; उक्तप्रकाराणां प्रमाणतः प्रसिद्धाविनाभावानां प्रतिपादयिष्माण हेतु प्रपञ्चत्वेन स्याद्वादिनामेव सम्भवात् । न चायं भेदो घटते । सर्वं हि लिंगं पूर्ववदेव; परिशेषानुमानस्यापि पूर्ववत्त्वप्रसिद्ध ेः :- प्रसक्तप्रतिषेधस्य परिशिष्टप्रतिपत्त्यविनाभूतस्य पूर्वं क्वचिन्निश्चितस्य विवादाध्यासितपरिशिष्टप्रतिपत्तौ । होना सामान्यतोदृष्ट अनुमान कहलाता है जैसे सूर्य गतिशील है क्योंकि देशसे देशांतर में प्राप्त होता है जैसे देवदत्त प्राप्त होता है इत्यादि पूर्ववत् पूर्व आदि अनुमान भी उक्त न्यायसे निराकृत हुए समझने चाहिये । क्योंकि उक्त प्रकार भी स्याद्वादी के यहां ही संभव है, और इसका भी कारण यह है कि हमारे यहां इनके अविनाभाव संबंधका नियम तर्क प्रमाण द्वारा भलीभांति प्रसिद्ध है, इन सबके सब अनुमानोंका प्रागे हेतु प्रकरण में कथन करेंगे | विशेषार्थ – यौगके यहां पूर्ववत् और शेषवत् आदि अनुमानोंके समान पूर्ववत् पूर्व, शेषवत् परिशेष प्रादि अनुमान प्रकार भी माने गये हैं । उनके उदाहरण क्रमशः उपस्थित किये जाते हैं - साध्य और साधनका अविनाभावका कहीं पर निश्चय करके अन्यत्र अनुमान लगाना पूर्ववत् पूर्वानुमान है, साध्य साधनका संबंध पूर्व में निश्चित होना पूर्व शब्दका अर्थ है और वह जिस अनुमानमें हो उसे पूर्ववत् पूर्व कहते हैं ऐसी पूर्ववत् पूर्व शब्दकी निरुक्ति है, इसका उदाहरण - यह पर्वत प्रग्नियुक्त है क्योंकि धूमवाला है जैसे कि महानस (रसोई घर ) है । महानस में पहले से ही साध्य साधन (अग्नि- धूम ) का निश्चय हो चुका या और अब पर्वत पर निश्चय होने जा रहा अतः यह पूर्ववत् पूर्वानुमान कहलाया । शेषवत् परिशेषानुमानका अर्थ एवं उदाहरण - परिशिष्ट अर्थको शेष कहते हैं और वह जिस अनुमानसे हो उसे शेषवत् परिशेषानुमान कहते हैं, जैसे शब्द कहीं पर प्राश्रित रहता है, क्योंकि वह गुण है जैसे रूपादि गुण प्रश्रित रहते हैं । यौगकी मान्यतानुसार यह अनुमान प्रयुक्त हुआ है उनके यहां छह पदार्थ माने हैं द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय; उनका कहना है कि शब्द अनित्य होने के कारण सामान्य और विशेष तथा समवाय नामा पदार्थरूप नहीं हो सकता क्योंकि सामान्यादि पदार्थ नित्य हैं शब्दको द्रव्य पदार्थरूप भी नहीं मान सकते क्योंकि वह प्रकाशके आश्रित रहता है तथा दूसरे शब्दके उत्पन्न होने में कारण होनेसे कर्म । । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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