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________________ NSSSSS पूर्ववदाद्यनुमानवैविध्यनिरासः MERENREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEV यच्चान्यदुक्तम्-"प्रत्यक्षपूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतो दृष्टं च ।" [न्याय सू० १।१।५ ] इति । तत्र पूर्ववच्छेषवत्केवलान्वयि, यथा सदसद्वर्गः कस्यचिदेकज्ञानालम्बनमनेकत्वात् पंचांगुलवत् । पंचांगुलव्यतिरिक्तस्य सदसद्वर्गस्य पक्षीकरणादन्यस्याभावाद्विपक्षाभावः, अत एव व्यतिरेकाभावः। पूर्ववत्सामान्यतोऽदृष्टम् केवलव्यतिरेकि, यथा सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्त्वा अनुमान प्रमाणके विषयमें यौगका कहना है कि "प्रत्यक्ष पूर्वकं विविध मनुमानं पूर्ववच्छेषवत् सामान्यतो दृष्टं च” अनुमान प्रत्यक्ष पूर्वक होता है उसके तीन भेद हैं - पूर्ववत्, शेषवत्, सामान्यतोदृष्ट । वृत्तिकार इनके नामों का विभाजन इस प्रकार करते हैं- पूर्ववत् शेषवत् केवलान्वयी, पूर्ववत् सामान्यतोदृष्ट केवलव्यतिरेकी और पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतोदृष्टअन्वयव्यतिरेकी। इनका क्रमशः विवरण करते हैं-अनुमानमें सबसे पहले जिसका प्रयोग होता है उसे पूर्व अर्थात् पक्ष कहते हैं, जिसका अंत में प्रयोग हो वह शेषवत् अर्थात् दृष्टांत है, साधनसामान्य की साध्य सामान्य के साथ व्याप्ति होना “सामान्यतो दृष्ट" कहा जाता है। पूर्ववत् शेषवत् केवलान्वयी अनुमानका उदाहरण – सद्वर्ग-सत्ताभूत द्रव्य गुणादि, असत् वर्ग-अभाव रूप प्राग भावादि ये सभी किसी एक पुरुषके ज्ञानके आलंबनरूप हैं क्योंकि अनेक हैं, जैसे पांच अंगुलियां अनेक होनेसे एक पुरुषके ज्ञानका पालंबनभूत हैं। इस अनुमान में प्रथम प्रयुक्तपक्ष शेष में प्रयुक्त दृष्टांत एवं केवल अन्वयव्याप्ति पायी जाती है। अतः इसे पूर्ववत्शेषवत् केवलान्वयी कहते हैं। इस अनुमान में पांच अंगुलियों के अतिरिक्त सभी सत् असत् भूत पदार्थोंका पक्षमें संग्रह हो जानेसे विपक्षभूत पदार्थ शेष नहीं रहता इसीलिये व्यतिरेकका अभाव है इसी वजह से केवलान्वयी अनुमान कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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