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________________ हेतोः पाञ्चरूप्यखण्डनम् ३४५ हेत के पंचरूपता के खण्डन का सारांश नैयायिक वैशेषिक हेतु के पांच अंग बतलाते हैं पक्ष धर्मत्व, सपक्षसत्व, विपक्ष व्यावृत्ति, अबाधित विषयत्व, असत्प्रतिपक्षत्व, इन पांच को न मानने से पांच दोष पाते हैं पक्षधर्मत्व के अभावमें प्रसिद्ध हेत्वाभास, सपक्षसत्व के अभाव में विरुद्ध, विपक्ष व्यावृत्ति के अभाव में अनेकान्तिक, अबाधित विषयत्व के अभाव में कालात्ययापदिष्ट और असत्प्रतिपक्षत्व के अभाव में प्रकरणसमनामक दोष आता है, किन्तु यह मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि हेतु में साध्याविनाभावित्व गुण एक ही ऐसा है कि उसके सद्भाव होने पर प्रसिद्ध आदि दोष नहीं पाते हैं । आपने कहा कि यदि हेतु में पक्ष धर्मत्वगुण न होवे तो प्रसिद्ध दोष पाता है यह कथन असत् है, पूर्वचरादि हेतु में पक्ष धर्मत्व नहीं है तो भी साध्य को सिद्ध करता है। ऐसे ही सपक्ष सत्व के नहीं होते हुए भी हेतु साध्य का गमक होता है। विपक्ष व्यावृत्ति नाम का गुण तो हेतु में होना आवश्यक है किन्तु जब उसमें साध्याविनाभावित्व है तो नियम से विपक्ष से व्यावृत्त गुण युक्त होता है अतः इसका पृथक् रूप से प्रतिपादन करने की आवश्यकता नहीं रहती । अबाधित विषयत्व और असत् प्रतिपक्षत्व गुण भी हेतु की महत्ता बढ़ाने वाले नहीं हैं, क्योंकि ये गुण रहते हुए भी अविनाभावत्व के बिना वह हेतु साध्य को सिद्ध नहीं कर सकता। हेतु का जो अबाधित विषयत्व गुण माना है वह निश्चित है कि नहीं ? निश्चित होना अशक्य है क्योंकि इसमें किसी काल में किसी स्थान पर भी बाधा नहीं आवेगी ऐसा अल्पज्ञ को ज्ञान होना अशक्य है । असत्प्रतिपक्षत्व को कल्पना करना भी व्यर्थ है, अंतिम यही निष्कर्ष होना है कि हेतु का लक्षण "साध्याबिनाभावित्व" ही है उसीसे साध्य की सिद्धि होती है । अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः ।। ॥ समाप्त ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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