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हेतोस्त्रैरूप्यनिरासः
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'भावित्वाद्ध तुरेवेति चेत्; तहि सपक्षे सत्यसति चासत्त्वेन निश्चितो हेतुरस्तु तत एव । नन्वेवं सपक्षे तदेकदेशे वा सन्कथं हेतुः ? 'सपक्षेऽसन्नेव हेतुः' इत्यनवधारणात् । विपक्षेपि तदसत्त्वानवधारणमस्तु; इत्ययुक्तम्; साध्याविनाभावित्वव्याघातानुषङ्गात् ।
यदि पुनः सपक्षविपक्षयोरसत्त्वेन संशयितोऽसाधारण इत्युच्यते; तदा पक्षत्रयवृत्तितया निश्चितया मंशयितया वाऽनैकान्तिकत्वं हेतोरित्यायातम् । न च धावणत्वादौ सास्तीति गमकत्वमेव । विरुद्धताप्येतेन प्रत्युक्ता। यो हि विपक्षैकदेशेपि न वर्तते, स कथं तत्रैव वर्तेत ? असिद्धता तु दूरोत्सारितैव, श्रावणत्वस्य शब्दे सत्त्वनिश्चयात् । तन्न पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्त्वं वा हेतोर्लक्षणम् ।
शंका-सपक्ष या सपक्षके एक देशमें वर्त्तनेवाला हेतु किस प्रकार सही कहलायेगा?
समाधान-यह आशंका असत् है, सपक्षमें असत्वरूप हेतु ही सही है ऐसा अवधारण नहीं किया है अतः सपक्ष या सपक्षके एक देश में वर्त्तनेवाला हेतु सत् ही कहलाता है।
शंका- इस तरह तो विपक्ष में भी हेतुके असत्वका अवधारण नहीं होवे ?
समाधान-इस तरह अवधारण न हो तो साध्यके साथ अविनाभावपनेसे रहनारूप हेतुका लक्षण खंडित होनेका प्रसंग पाता है। यहां बौद्धादिके साथ किये शंका समाधान से यह तात्पर्य है कि ये परवादी हेतुका असाधारण अनैकांतिक नामका दोष मानते हैं, “विपक्ष सपक्षाभ्यां व्यावर्तमानो हेतुरसाधारणकान्तिकः' विपक्ष और सपक्ष से जो हेतु व्यावृत्त हो उसे असाधारण अनेकांतिक कहते हैं, किन्तु यह दोष हेतुमें घटित नहीं होता क्योंकि इसके रहते हुए भी यदि हेतु साध्याविनाभावी हो तो अवश्यमेव साध्यका गमक होता है । अस्तु ।
यदि द्वितीय पक्षानुसार विचार किया जाय कि सपक्ष और विपक्ष में असत्त्वरूपसे वर्त्तनेका जिसका निश्चय न हो वह संशयित असाधारण हेतु कहलाता है तो इस कथनानुसार जो हेतु पक्षत्रय [पक्षसपक्ष और विपक्ष ] में निश्चितपनेसे वर्तता है अथवा संशयितपनेसे वर्त्तता है वह अनैकान्तिक हेत्वाभास है ऐसा अर्थ होता है । इस प्रकारका अनैकान्तिक दोष तो पूर्वोक्त श्रावणत्वादि हेतुमें नहीं है, इसलिये वह साध्यका गमक अवश्य ही है। अनैकांतिक के समान विरुद्ध दोष भी उस हेतुमें नहीं है, क्योंकि जो हेतु विपक्षके एक देश में भी नहीं रहता वह किस प्रकार पूर्ण विपक्ष में रह सकता है ?
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