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________________ हेतोस्त्ररूप्य निरासः ३२३ रुपलक्ष्यते । तद्भावे पक्षधर्मत्वाद्यभावेपि 'उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयात्' इत्यादेर्गमकत्वेन वक्ष्यमाणत्वात्, सपक्षे सत्त्वरहितस्य च श्रावणत्वादेः शब्दानित्यत्वे साध्ये गमकत्वप्रतीतेः । ननु नित्यादाकाशादेविपक्षादिव सपक्षादप्यनित्याद् घटादे: सतो व्यावृत्तत्वेन श्रावणत्वादेरसाधारणत्वादनैकान्तिकता; तदसत्यम्; असाधारणत्वस्यानैकान्तिकत्वेन व्याप्त्यऽसिद्धः । सपक्षविपक्षयोहि हेतरसत्त्वेन निश्चितोऽसाधारणः, संशयितो वा ? निश्चितश्चेत्; कथमनैकान्तिकः ? पक्षे साध्याभावेनुपपद्यमानतया निश्चितत्वेन संशयहेतुत्वाभावात् । हेतु पक्ष धर्मत्व आदि त्रैरूप्य से रहित है तो भी अन्यथानुपपन्नत्व [मुहूर्त बाद रोहिणी उदयका नहीं होना होगा तो अभी कृतिका उदय भी नहीं होता] रूप लक्षणके होनेसे यह हेतु स्वसाध्य का गमक है, ऐसा प्रागे कहने वाले हैं। जिस हेतुका सपक्षमें सत्त्व नहीं है ऐसे श्रावणत्व आदि हेतु शब्द के अनित्य धर्मरूप साध्यको सिद्ध करते हुए भी प्रतीति में आ रहे हैं अतः सपक्ष सत्त्व आदि त्रैरूप्य को हेतुका लक्षण मानना असत् है। शंका-श्रावणत्व आदि हेतुको साध्यका गमक मानना गलत है, क्योंकि यह हेतु विपक्षभूत नित्य आकाशादि से जैसे व्यावृत होता है वैसे सपक्षभूत अनित्य घटादिसे भी व्यावृत्त होता है अतः असाधारण अनैकांतिक दोष युक्त है ? __समाधान-यह कथन असमीचीन है, असाधारणत्व की अनैकांतिकत्व के व्याप्ति सिद्ध नहीं है अर्थात् जो जो असाधारण हो वह वह अनैकांतिक होता है ऐसा नियम नहीं है, बताइये कि सपक्ष और विपक्ष में असत्वरूप से निश्चित रहने वाले हेतुको असाधारण कहते हैं या संशयित रहने वाले हेतुको असाधारण कहते हैं ? निश्चित रहने वाले हेतुको असाधारण कहो तो वह अनैकांतिक किस प्रकार हो सकता है ? जो हेतु पक्षमें साध्य के अभाव में नहीं रहना रूप निश्चित हो चुकता है वह संशयरूप हो ही नहीं सकता। कर्णज्ञान द्वारा ग्राह्य होनेको श्रावणत्व कहते हैं, वह कर्णज्ञान अपने स्वरूप को शब्दसे प्राप्त करते हुए उस शब्दका ग्राहक होता है अन्यथा नहीं, क्योंकि "नाकारणं विषयः" अकारण ज्ञानका विषय नहीं होता अर्थात् ज्ञान जिस कारण से उत्पन्न हुआ है उसीको जानता है ऐसी अाप बौद्धकी मान्यता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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