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प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यविचारः
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दोनों का जोड़ प्रत्यभिज्ञान ही कर सकता है। भिन्न भिन्न वस्तु की भिन्न भिन्न शक्ति हुआ करती है । बौद्धादि परवादी यदि प्रत्यभिज्ञान को नहीं मानेंगे तो सभी के इष्ट मत की सिद्धि नहीं होगी, क्योंकि स्वतत्व का प्रतिपादन अनुमान के द्वारा किया जाता है और अनुमान बिना प्रत्यभिज्ञान के उत्पन्न ही नहीं हो सकता है। प्रत्यभिज्ञान के बिना तो जगत का व्यवहार ही समाप्त होगा जो पहले दिया था उसको वापस दो ऐसा कह नहीं सकेंगे विवाह मंगल, मित्रता, शत्रुता, किये हुए कार्यों की सफलता, ऋण चुकाना, बीमा उतारना, आदि कार्य ठप्प हो जायेंगे, क्योंकि पहले और अभी के अवस्था के कार्यों का मिलान करने वाला कोई ज्ञान हमारे पास नहीं है। जिसके सहारे कह सके कि यह पुत्री विवाहित है, यह मेरा शत्रु या मित्र है इत्यादि । इस ज्ञान में दो आकार हैं अर्थात् यह वही है ऐसे दो आकार प्रतीत हैं अतः अप्रमाण है ऐसा भी नहीं कह सकते । अनेक प्राकारों को एक साथ प्रतीत कराना तो ज्ञान की महिमा है उसे कौन रोकेगा ? आप बौद्ध खुद ही चित्र ज्ञान को मानते हैं उसमें भी अनेक आकार हैं ? कटे हुए नख केश आदि में यह वही है ऐसा प्रत्यभिज्ञान होता है वह असत्य है अतः जोडरूप ज्ञान अप्रामाणिक है ऐसा कहना भी ठीक नहीं वह ज्ञान सादृश्य प्रत्यभिज्ञान रूप है न कि एकत्व रूप । तथा प्रत्यभिज्ञान को न माने तो अनुमान प्रमाण सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि अनुमान में जोडरूप ज्ञान की भी आवश्यकता है। नैयायिक प्रत्यभिज्ञान को उपमा प्रमाण में अन्तर्भूत करते हैं, किन्तु वह ठीक नहीं है, क्योंकि उपमा में एकत्व, वैलक्षण्य, प्रतियोगी आदि प्रत्यभिज्ञानों का अतभाव होना अशक्य है। अतः प्रत्यभिज्ञान एक पृथक् प्रमाण सिद्ध होता है।
।। समाप्त ॥
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