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________________ २८७ प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्य विचारः ननु स एवायमित्यादि प्रत्यभिज्ञानं नैकं विज्ञानम्-'सः' इत्युल्लेखस्य स्मरणत्वात् 'अयम्' इत्युल्लेखस्य चाध्यक्षत्वात् । न चाभ्यां व्यतिरिक्त ज्ञानमस्ति यत्प्रत्यभिज्ञानशब्दाभिधेयं स्यात् । नाप्यनयोरैक्यं प्रत्यक्षानुमानयोरपि तत्प्रसंगात् । स्पष्टेतररूपतया तयोर्भेदेऽत्रापि सोऽस्तु; तदसाम्प्रतम्; स्मरणप्रत्यक्षजन्यस्य पूर्वोत्तरविवर्तवत्यैकद्रव्यविषयस्य संकलनज्ञानस्यैकस्य प्रत्यभिज्ञानत्वेन सुप्रतीतत्वात् । न खलु स्मरणमेवातीतवर्तमानविवर्त्तवर्तिद्रव्यं संकलयितुमलं तस्यातीतविवर्त्तमात्रगोचरत्वात् । नापि दर्शनम्; तस्य वर्तमानमात्रपर्यायविषयत्वात् । तदुभयसंस्कारजनितं कल्पनाज्ञानं तत्संकलयतीति कल्पने तदेव प्रत्यभिज्ञानं सिद्धम् । प्रत्यभिज्ञानानभ्युपगमे च 'यत्सत्तत्सर्वं क्षणिकम्' इत्याद्यनुमानवैयर्थ्यम् । तद्धय कत्वप्रतीतिनिरासार्थम् न पुन! क्षणक्षयप्रसिद्धर्थं तस्याध्यक्षसिद्धत्वेनाभ्युपगमात् । समारोपनिषेधार्थं तत्; दोनों से अतिरिक्त अन्य ज्ञान नहीं है जो प्रत्यभिज्ञान शब्द का अभिधेय हो, इस स्मृति और प्रत्यक्ष को एक रूप भी नहीं मान सकते हैं अन्यथा प्रत्यक्ष और अनुमान में भी एकत्व मानना होगा। प्रत्यक्ष स्पष्ट प्रतिभास वाला है और अनुमान अस्पष्ट प्रतिभास वाला है अतः इनमें भेद सिद्ध होता है ऐसा कहो तो यही बात स्मरण और प्रत्यक्ष में है । अर्थात् स्मरण अस्पष्ट प्रतिभास वाला और प्रत्यक्ष स्पष्ट प्रतिभास वाला होने से इनमें भेद ही है । जैन-यह कथन ठीक नहीं है, जो स्मरण और प्रत्यक्ष से उत्पन्न होता है, पूर्वोत्तर पर्यायों में व्यापी एक द्रव्य जिसका विषय है ऐसा जोड़ रूप प्रत्यभिज्ञान भली भांति प्रतीति में आता है। स्मरण ज्ञान अतीत और वर्तमान पर्यायों में रहने वाले द्रव्य के जोड़ रूप विषयको जानने में समर्थ नहीं है, वह तो केवल अतीत पर्याय को जान सकता है - दर्शनरूप प्रत्यक्ष भी इस विषय को ग्रहण नहीं कर पाता क्योंकि वह केवल वर्तमान पर्याय को जानता है। यदि कहे कि अतीत और वर्तमान पर्याय के संस्कार से उत्पन्न हुमा कल्पना ज्ञान उन दोनों पर्यायों का संकलन करता है तो वही ज्ञान प्रत्यभिज्ञान रूप सिद्ध होता है । तथा प्रत्यभिज्ञान को स्वीकार नहीं करे तो “जो सत है वह सब क्षणिक है" इत्यादि अनुमान व्यर्थ हो जाता है । सौगत-अनुमान प्रमाण एकत्व का निरसन करने के लिये दिया जाता है, क्षणिकत्व को सिद्ध करने के लिये नहीं, क्योंकि क्षणिकत्व तो प्रत्यक्ष से ही सिद्ध हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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