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________________ प्रत्यभिज्ञानप्रामाण्यविचारः देशकालादिभेदेन तत्रास्त्यवसरो मितेः । यः पूर्वमवगतोंशः स न नाम प्रतीयते ॥२॥ इदानीन्तनमस्तित्वं न हि पूर्वधिया गतम् ।” [ मी० श्लो० सू० ४ श्लो० २३२-२३४ ] तदप्यसमीचीनम् ; प्रत्यभिज्ञानेऽक्षान्वयव्यतिरेकानुविधानस्यासिद्ध:, अन्यथा प्रथमव्यक्तिदर्शनकालेप्यस्योत्पत्तिः स्यात् । पुनर्दर्शने पूर्वदर्शनाहित संस्कार प्रबोधोत्पन्न स्मृतिसहाय मिन्द्रियं तज्जनयति; इत्यप्यसाम्प्रतम्; प्रत्यक्षस्य स्मृतिनिरपेक्षत्वात् । तत्सापेक्षत्वेऽपूर्वार्थ साक्षात्कारित्वाभावः स्यात् । देशकालेत्याद्यप्ययुक्तमुक्तम्; यतो देशादिभेदेनाप्यध्यक्षं चक्षुः सम्बंधमेवार्थं प्रकाशयत्प्रतीयते । न च प्रत्यभिज्ञातं प्रकाशयति पूर्वोत्तरविवर्त्तवकत्वविषयत्वात्तस्याः । वर्त्तमानश्चायं चक्षुः सम्बद्धः प्रसिद्धः । यदप्युच्यते - स् - स्मरतः पूर्वदृष्टार्थानुसन्धानादुत्पद्यमाना मतिश्चक्षुः सम्बद्धत्वे प्रत्यक्षमिति; तदप्यसारम्; न हीन्द्रियमति: स्मृतिविषयपूर्वरूपग्राहिणी, तत्कथं सा तत्सन्धानमात्मसात्कुर्यात् ? पूर्वदृष्टसन्धानं हि तत्प्रतिभासनम्, तत्सम्भवे चेन्द्रियमतेः परोक्षार्थग्राहित्वात् परिस्फुटप्रतिभासता न २८५ होती है, यदि प्रत्यक्ष प्रमाण को स्मृति सापेक्ष साक्षात्कापने का प्रभाव हो जायगा । Jain Education International समाधान - यह कथन ठीक नहीं है इंद्रियज प्रत्यक्ष के स्मृति की अपेक्षा नहीं मानते हैं तो उसमें अपूर्वार्थ के मीमांसक ने कहा कि देश काल आदि के निमित्त से ज्ञान में भेद होता है सो यह कथन ठीक नहीं । देश प्रादि भेद होते हुए भी चक्षु से सम्बद्ध हुए वस्तु को ही प्रत्यक्ष प्रमाण प्रकाशित करता हुआ प्रतीत होता है । किन्तु प्रत्यभिज्ञान उसको प्रकाशित नहीं करता, क्योंकि पूर्वोत्तर पर्यायों में रहने वाला एकत्व उसका विषय है । प्रत्यक्ष का विषय चक्षु से सम्बद्ध वर्तमान रूप होता है यह प्रसिद्ध ही है । मीमांसक के यहां कहा जाता है कि स्मरण करते हुए पुरुष के पहले देखे हुए पदार्थ के अनुसंधान से उत्पद्यमान ज्ञान चक्षु से सम्बद्ध होने पर प्रत्यक्ष कहा जाता है, सो यह कथन भी असार है, इन्द्रिय ज्ञान स्मृति के विषयभूत स्वस्वरूप का ग्राहक नहीं होता है अतः वह किस प्रकार उस अनुसन्धान को आत्मसात् करेगा ? पूर्व में देखे हुए पदार्थ का अनुसंधान होना उसका प्रतिभासन कहलाता है, उसके होने पर तो इन्द्रियज्ञान परोक्षार्थग्राहो हो जाने से उसमें परिस्पष्ट प्रतिभासता नहीं हो सकेगी । तथा यदि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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