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________________ २८० प्रमेयकमलमार्तण्डे न चाविसंवादकत्वं स्मृतेरसिद्धम्; स्वयं स्थापितनिक्षेपादौ तद्गृहीतार्थे प्राप्तिप्रमाणान्तरप्रवृत्तिलक्षणाविसंवादप्रतीतेः । यत्र तु विसंवादः सा स्मृत्याभासा प्रत्यक्षाभासवत् । विसंवादकत्वे चास्याः कथमनुमानप्रवृत्तिः सम्बन्धस्यातोऽप्रसिद्ध : ? न च सम्बन्धस्मृतिमन्तरेणानुमानमुदेत्यतिप्रसङ्गात्। किञ्च, सम्बन्धाभावात्तस्याः विसंवादकत्वम्, कल्पितसम्बन्धविषयत्वाद्वा, सतोप्यस्याऽनया विषयीकर्तु मशक्यत्वाद्वा ? प्रथमपक्षे कुतोऽनुमानप्रवृत्तिः ? अन्यथा यतः कुतश्चित्सम्बन्धरहिताद्यत्र क्वचिदनुमानं स्यात् । कल्पितसम्बन्धविषयत्वेनास्याः विसंवादित्वे दृश्यप्राप्यैकत्वे प्राप्यविकल्प्यैकत्वे सकता, अन्यथा अतिप्रसंग होगा। बौद्ध स्मृति को विसंवादक मानते हैं सो उसका कारण क्या है ? साध्य साधन के संबंध का अभाव है इसलिये ? अथवा कल्पित संबंध को विषय करने से, या संबंध के रहते हुए भी स्मृति द्वारा इसको विषय करना अशक्य होने से ? प्रथम पक्ष कहो तो अनुमान की प्रवृत्ति किससे होवेगी? बिना संबंध के अनुमान प्रवृत्ति करेगा तो जिस किसी संबंध रहित हेतु से जहां चाहे वहां प्रवृत्ति कर सकेगा। कल्पित संबंध को स्मृति विषय करतो है अतः विसंवादक है ऐसा दूसरा पक्ष कहे तो भी ठीक नहीं क्योंकि इस तरह मानें तो दृश्य (स्वलक्षण) और प्राप्य में एकत्व रूप कल्पित संबंध को विषय करने वाला प्रत्यक्ष प्रमाण तथा प्राप्य और विकल्प में एकत्वरूप कल्पित संबंध को विषय करने वाला अनुमान प्रमाण अविसंवादक नहीं रहेगा। भावार्थ-बौद्ध मतानुसार प्रत्येक वस्तु क्षणिक है, उस क्षणिक वस्तु का जो स्वरूप है उसे स्वलक्षण कहते हैं, स्वलक्षण को दृश्य भी कहते हैं, प्राप्त करने योग्य वस्तु को प्राप्य कहते हैं, प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय दृश्य है, वह क्षणिक होने के कारण प्राप्ति के समय तक नहीं रहता, फिर भी दृश्य और प्राप्य में एकत्व को कल्पना करके उस विषय को ग्रहण करने वाले प्रत्यक्ष प्रमाण में अविसंवादकपना माना जाता है, इसी प्रकार प्राप्य और विकल्प में एकत्व की कल्पना करके उस विषय को ग्रहण करने वाले अनुमान में अविसंवादपना माना जाता है, इस तरह बौद्धमत में कल्पित संबंध को ग्रहण करने वाले ज्ञान को प्रमाणभूत स्वीकार किया है, अतः स्मृति ज्ञान को कल्पित संबंध को विषय करने वाला होने से विसंवादक है ऐसा कहना गलत है, अन्यथा उनके अभीष्ट प्रत्यक्षादि प्रमाण में भी विसंवादकपना सिद्ध होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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