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________________ स्मृतिप्रामाण्य विचारः २७६ न चानुभूतार्थविषयत्वे स्मृतेहीतग्राहित्वेनाप्रामाण्यम्; [प]रिच्छित्तिविशेषसम्भवात् । न खलु यथा प्रत्यक्षे विशदाकारतया वस्तुप्रतिभासः तथैव स्मृतौ तत्र तस्या (तस्य) वैशद्याऽप्रतीतेः । पुनः पुनर्भावयतो वैशद्यप्रतीतिस्तु भावनाज्ञानम्, तच्च तद्र पतया भ्रान्तमेव स्वप्नादिज्ञानवत् । तथाप्यनुभूतार्थ विषयत्वमात्रेणास्याः प्रामाण्यानभ्युपगमे अनुमानेनाधिगतेऽग्नौ यत्प्रत्यक्षं तदप्यप्रमाणं स्यात् । असत्यतीतेर्थे प्रवर्त्तमानत्वात्तदप्रामाण्ये प्रत्यक्षस्यापि तत्प्रसङ्गः, तदर्थस्यापि तत्कालेऽसत्त्वात् । तज्जन्मादेस्तत्रास्य प्रामाण्ये स्मरणेपि तदस्तु । निराकृतं चार्थजन्मादि ज्ञानस्य प्रागेवेति कृतं प्रयासेन। स्मृति प्रमाण अनुभूत विषय को जानता है अतः गृहीत ग्राही होने से अप्रमाणभूत है ऐसा भी नहीं समझना। क्योंकि इसमें परिच्छित्ति विशेष संभव है। जिस प्रकार प्रत्यक्ष में विशदरूप से वस्तु का प्रतिभास होता है उस प्रकार स्मृति में नहीं होता है, उसमें तो वस्तु का अविशदरूप प्रतिभास होता है । पुनः पुनः भावना करने वाले मनुष्य को यदि किसी विषयमें विशदता प्रतीत होती है तो वह भावना ज्ञान है स्मृति ज्ञान नहीं है, भावना ज्ञान तो उस रूप से भ्रांत ही है जैसे स्वप्न ज्ञान भ्रान्त है। स्मृति स्वप्न ज्ञान या भावना ज्ञानके समान भ्रांत नहीं होती, तो भी अनुभूत विषय वाली होने मात्र से इसका प्रामाण्य स्वीकार न किया जाय तो जो अनुमान द्वारा अनुभूत हुई अग्निमें प्रवृत्ति करने वाले प्रत्यक्ष ज्ञान को अप्रमाण मानने का प्रसंग आयेगा । असद्भूत अतीत पदार्थ में प्रवृत्तमान होने से स्मृति प्रमाण है, ऐसा कहे तो प्रत्यक्ष को भी अप्रमाणता का प्रसंग आता है क्योंकि उसके विषयभूत पदार्थ का भी तत्काल में (बौद्धमत की अपेक्षा) असत्व है । यदि कहा जाय कि प्रत्यक्ष ज्ञान उसी पदार्थ में उत्पन्न हुआ है, उसी के आकार का है अतः प्रमाण है तो यही बात स्मरण में भी होवे । किन्तु ज्ञान का पदार्थ से उत्पन्न होना आदिका पूर्व में ही निराकरण हो चुका है अतः इस विषय में अधिक कहने से बस हो। स्मृति का अविसंवादकपना असिद्ध भी नहीं है क्योंकि स्वयं के द्वारा स्थापित किये निक्षेप (धन) आदि में उसके ग्रहण करने पर प्राप्तिरूप प्रत्यक्ष प्रमाणांतर से स्मृति का अविसंवादकपना सिद्ध होता है । जहां विसंवाद होता है वह स्मरणाभास कहलाता है जैसे-प्रत्यक्षाभास होता है तथा यदि स्मृति को अप्रमाण मानते हैं तो अनुमान की प्रवृत्ति किस प्रकार होवेगी ? क्योंकि स्मृति के अभाव में साध्य साधन के अविनाभाव संबंध की सिद्धि नहीं हो सकती। अविनाभावी संबंध की स्मृति हुए बिना अनुमान प्रमाण उदित नहीं हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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