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________________ स्त्रीमुक्तिविचारः २६५ नापि तन्वीमनःक्षोभनिवृत्त्यर्थं तदाहतम् । तद्वाञ्छाऽहेतुकत्वेन तनिषेधस्य सम्भवात् ।। ४ ॥ चक्षुरुत्पाटनं पट्टबन्धनं च प्रसज्यते । लोचनादेस्तदुत्पत्ती निमित्तत्वाविशेषतः ॥ ५ ॥ चलचित्ताङ्गना काचित्संयतं च तपस्विनम् । यदीच्छति भ्रातृवत्कि दोषस्तस्य मतो नृणाम् ॥ ६ ॥ बीभत्सं मलिनं साधु दृष्ट्वा शवशरीरवत् । अङ्गना नैव रज्यन्ते विरज्यन्ते तु तत्त्वतः ।। ७ ।। स्त्रीपरीषहभग्नैश्च बद्धरागैश्च विग्रहे । वस्त्रमादीयते यस्मात्सिद्ध ग्रन्थद्वयं ततः ॥८॥ न चैवं जन्तुरक्षागण्डादिप्रतीकारार्थं पिच्छौषधादौ गृह्यमारणेप्ययं दोषः समानः; त्रिचतुरपिच्छग्रहणस्य जन्तुरक्षार्थत्वात्, शरीरे ममेदम्भावाऽसूचकत्वाच्च, औषधस्यापि प्रतिपन्नसामर्थ्यस्य है ऐसा स्वीकार करना पड़ेगा ॥३॥ यदि नग्न रहते हैं तो स्त्री विकारी होती है अतः स्त्री के मन का क्षोभ दूर करने के लिये वस्त्र को ग्रहण करते हैं, ऐसा कहना भी असत् है, स्त्री के मन में क्षोभ तो साधु ने कराया नहीं, न नग्नता ही वांछा को कराती है नग्नता. वाञ्छा की अहेतु होने से उसका निषेध संभव है ॥४।। यदि स्त्रियों को देखकर मन में क्षोभ होता है अथवा साधु को देखने से स्त्री विकार को प्राप्त होती है तब तो अपनी या उसकी आंख को फोड़ डालना या प्रांखों पर पट्टी बांधना भी जरूरी होगा ? क्योंकि अांख आदिक भी क्षोभ का अविशेष रूप से कारण है ? ।।५।। यदि कदाचित् कोई चंचल स्वभाव वाली स्त्री संयमी को वांछा करती भी है तो वह साधु भाई के समान होने से कुछ भी आपत्ति नहीं हो सकती, अतः नग्नता दोष युक्त नहीं है ।।६।। प्रथम तो बात यह है कि नग्न साधु को देखकर स्त्री को विकार पा नहीं सकता क्योंकि उसका शरीर, बीभत्स, मैला, शव के समान रहता है ऐसे शरीर को देखकर स्त्रियां उनसे विरक्त ही होती हैं आसक्त नहीं हो सकती ।।७।। इस प्रकार यहां तक के विवेचन से स्पष्ट होता है कि जो विषयासक्त हैं, स्त्री परीषह सहन नहीं कर सकते, शरीर में राग युक्त हैं, वे ही वस्त्र को ग्रहण करते हैं, इसीलिये बाह्याभ्यंतर परिग्रह धारी कहलाते हैं ।।८।। यहां पर शंका हो सकती है कि इस तरह वस्त्र ग्रहण में दूषण बतायेंगे तो जीव रक्षा के लिये मयूर पिच्छिका ग्रहण एवं रोग निर्वृति के लिये औषधि ग्रहण करने से भी यही दूषण आता है ? सो यह शंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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