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________________ २६४ प्रमेयकमलमार्तण्डे एतेन संयमोपकरणार्थं तदित्यपि निरस्तम् । किञ्च, बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहपरित्यागः संयमः । स च याचनसोवनप्रक्षालनशोषणनिक्षेपादानचौरहरणादिमनः संक्षोभकारिणिवस्त्रे गृहीते कथं स्यात् ? प्रत्युत संयमोपघातकमेव तत् स्याबाह्याभ्यन्तरनैर्ग्रन्थ्यप्रतिपन्थित्वात् । ह्रीशीतातिनिवृत्त्यर्थं वस्त्रादि यदि गृह्यते । कामिन्यादिस्तथा किन्न कामपीडादिशान्तये ? ॥ १ ॥ येन येन विना पीडा पुंसां समुपजायते। तत्तत्सर्वमुपादेयं लावकादिपलादिकम् ॥२॥ वस्त्रखण्डे गृहीतेपि विरक्तो यदि तत्त्वतः। स्त्रीमात्रेपि तथा किन्न तुल्याक्षेपसमाधितः ॥ ३ ॥ "जीवों की रक्षा के हेतु वस्त्र है" यह बात जैसे खण्डित होती है वैसे संयम का उपकरण वस्त्र होने से ग्रहण करते हैं, यह कथन भी खण्डित होता है । बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहका त्याग करना संयम कहलाता है, वस्त्र ग्रहण करने पर उसको सीना, धोना, सुखाना, रखना, उठाना तथा चोरके ले जाने पर मन में क्षोभ होना इत्यादि असंयमकी बातें हो जाने से संयम किस प्रकार पल सकता है ? वस्त्र ग्रहण से उल्टे संयम का नाश होता हैं वस्त्र तो बाह्याभ्यन्तर निग्रन्थता का प्रतिपक्षी है। वस्त्र को लज्जा, शीत की पीड़ा आदिका निवारण करनेके लिये ग्रहण करते हैं ऐसा कहा जाय तो स्त्री आदि को भी काम पीड़ाका निवारण करने के लिये ग्रहण करना दोषास्पद नहीं होगा ? ॥१॥ फिर तो जिस जिस कारणसे पीड़ा दूर हो वह वह सब पदार्थ पक्षी आदिका मांस आदि भी ग्रहण करने योग्य होंगे ? ॥२।। श्वेतांबर कहते हैं कि थोड़ा-सा वस्त्र लेने पर भी वास्तविक दृष्टिसे वह साधु विरागी हो बना रहता है ? तब ऐसा हो सकता है कि स्त्री को ग्रहण करने पर भी साधु विरागी ही है, इसमें भी प्रश्न उत्तर समान रहेंगे। राग सहित ही स्त्री का ग्रहण होता है ऐसा कहो तो वस्त्रमें भी यही दोष है कि वह भी राग सहित होकर ही ग्रहणमें पाता है । तथा वस्त्र ग्रहण मात्रसे राग नहीं आता है तो स्त्री मात्र ग्रहणसे भी राग नहीं आता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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