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________________ स्त्रीमुक्तिविचारः २५६ न च 'नपुसकस्य मोक्षहेतुपरमप्रकर्षास्ति तत्कारणापुण्य परमप्रकर्षसद्भावात् पुवत् । पुसो वा नास्त्यत एव नपुंसकवत् । तत्कारणाऽपुण्यपरमप्रकर्षों वा नपुसके नास्ति परमप्रकर्षत्वात् स्त्रीवदित्यप्यनिष्टापत्तिः उभयप्रसिद्धाद्ध तोरुभयप्रसिद्धस्य निषेधेनोभयोस्तुल्यत्वात्' इत्यभिधातव्यम्; उभयाभिप्रेतागमेन बाधनात् । स्त्रीणां तु तत्कारणापुण्यपरमप्रकर्षं पराभ्युपगतेनैव मोक्षहेतुपरमप्रकर्षणापाद्य तत्प्रतिषेधेन तद्धे तुरेव प्रतिषिध्यत इत्यस्ति विशेषः । __ यद्वा नोक्तानुमाने तत्कारणापुण्यपरमप्रकर्षाभावाद्ध तोर्मोक्षहेतुपरमप्रकर्षः स्त्रीषु निषिध्यते, शंका-नपुंसक के मोक्षके कारणोंका प्रकर्ष है, क्योंकि उनके नरकके कारण भूत पापका प्रकर्ष होता है, जैसे पुरुषके होता है । अथवा नपुसक के समान पुरुष के भी मोक्षहेतु का प्रकर्ष नहीं है क्योंकि नपुंसक के समान इसके पाप प्रकर्ष का अभाव है। अथवा नपुंसक में नरक के कारणभूत पाप का प्रकर्ष नहीं है, क्योंकि वह परम प्रकर्ष है, जैसे स्त्रीवेदी के वह पाप प्रकर्ष नहीं होता है । इस तरह दोनों जगह प्रसिद्ध हेतु से दोनों के ( दिगम्बर श्वेताम्बर ) साध्यका निषेध समान रूपसे हो जाता है । अर्थात् श्वेताम्बर स्त्रीमें मोक्ष हेतुका प्रकर्ष सिद्ध करना चाहते हैं और दिगम्बर स्त्री में उसका अभाव सिद्ध करना चाहते हैं किंतु उभयत्र समान हेतु होनेसे दोनोंका साध्य सिद्ध नहीं होता है ? समाधान-ऐसा नहीं कह सकते, दिगम्बर और श्वेताम्बर में इष्ट जो आगम है, उसके द्वारा स्त्री मुक्ति में बाधा ग्राती है, श्वेताम्बर मतमें स्त्रियों में नरक का कारणभूत पापका प्रकर्ष मानते नहीं हैं अतः जब एक प्रकर्ष नहीं माना तो मोक्ष हेतुका प्रकर्ष भी उसीसे निषिद्ध हो जाता है, इसलिये दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों मतमें समान हेतु और निषेध नहीं है, हम दिगम्बर तो पुरुषमें दोनोंका प्रकर्ष देखकर उसके मुक्ति होना स्वीकार करते हैं, और तुम लोग स्त्रियोंमें पापका प्रकर्ष नहीं मानकर भी मोक्षहेतु का प्रकर्ष मानते हो सो यह युक्ति संगत नहीं है। अथवा हमने शुरूमें जो अनुमान उपस्थित किया था कि स्त्रियोंमें मोक्ष हेतुका परम प्रकर्ष नहीं होता है क्योंकि वह परम प्रकर्ष है, जैसे उनके सप्तम नरक में गमन के कारण पापका परम प्रकर्ष नहीं होता है, पाप प्रकर्षके अभावरूप हेतुवाले इस अनुमान द्वारा स्त्रियोंमें मोक्ष हेतुके प्रकर्षका निषेध नहीं करते हैं अपितु दृष्टान्त में सप्तम नरक गमन हेतु प्रकर्ष अभाववत्) परमप्रकर्ष हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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