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________________ २५८ प्रमेय कमलमार्त्तण्डे यमस्ति यद्वदस्य मोक्षहेतु परमप्रकर्षस्तद्वेदस्य तत्कारणापुण्य परमप्रकर्षोप्यस्त्येव यथा पुवेदस्य । न च चरमशरीरेण व्यभिचारः; पुवेदसामान्यापेक्षयोक्ते: । विपरीतस्तु नियमो न सम्भवत्येव; नपुंसकवेदे तत्कारणापुण्यपरमप्रकर्षे सत्यप्यन्यस्यानभ्युपगमात् पुंस्यभ्युपगमाच्च, अनित्यत्वस्य प्रयनानन्तरीयकत्वेतरत्ववत् । ततश्च स्त्रीवेदस्यापि यदि मोक्षहेतुः परमप्रकर्षः स्यात्, तदा तदभ्युपगमादेवापरोप्यनिष्टोऽवश्यमापद्यते, अन्यथा पुंस्यपि न स्यात् । सिद्ध े च प्रतिबन्धद्वयाभावेपि कृतिकोदयादिवदुक्तप्रकर्षयोरविनाभावे स्त्रीणां तत्कारणापुण्य परमप्रकर्ष प्रतिषेधेन मोक्षहेतुपरमप्रकर्षो निषिध्यते । व्याप्य व्यापक भाव तो नहीं है फिर इनमेंसे एकके प्रभाव में अन्यका भी प्रभाव कैसे कर सकते हैं ? प्रतिप्रसंग होगा । दिगम्बर- आपने ठीक कहा, किन्तु यह तो नियम है कि जिस वेद में मोक्ष के कारणों का परमप्रकर्ष है उस वेदमें पाप कारणोंका परम प्रकर्ष भी है, जैसे पुरुषवेद में दोनों उपलब्ध हैं, इस कथनमें चरम शरीरी के साथ व्यभिचार भी नहीं होता क्योंकि हमने पुरुषवेद सामान्य की अपेक्षा से कथन किया है । ऐसा विपरीत नियम तो सम्भव नहीं है कि मोक्ष हेतुका प्रकर्ष व्यापक ( साध्य हो) और नरक के कारणभूत पाप का प्रकर्ष व्याप्य हो, ( हेतु ) क्योंकि नपुंसकवेद में नरक का कारणभूत पाप का प्रकर्ष है किन्तु मोक्ष के कारण ज्ञानादि का प्रकर्ष तो नहीं है, पुरुष में दोनों को स्वीकार किया है । जिस प्रकार ग्रनित्यत्व को हेतु और प्रयत्नानंतरीयकत्व या प्रयत्नानंतरीयकत्व को साध्य बनाने में विपरीत क्रम होता है उसी प्रकार नरक गमन के कारण का जो प्रकर्ष है उसको हेतु और मोक्ष के कारण के प्रकर्ष को साध्य बनावे तो विपरीत क्रम होता है । इस तरह का क्रम माने तो स्त्रीवेद में यदि मोक्ष के कारण का प्रकर्ष आप श्वेताम्बर मानते हैं तो उसके साथ आपको अनिष्ट ऐसा जो पाप का प्रकर्ष है वह भी अवश्य मानना पड़ेगा, अन्यथा पुरुष में भी पाप का प्रकर्ष नहीं रहेगा ? पाप का प्रकर्ष और मोक्ष के कारण का प्रकर्ष इन दोनों में तादात्म्य सम्बंध या तदुत्पत्ति सम्बन्ध रूप अविनाभाव नहीं है किन्तु कृतिका नक्षत्र का उदय और रोहिणी नक्षत्र का उदय इन दोनोंका जिस जातिका अविनाभाव है उस जातिका पाप प्रकर्ष और मोक्ष हेतु प्रकर्ष में अविनाभाव है अतः जहां स्त्रियोंके लिये पाप प्रकर्ष का निषेध किया जाता है साथ ही मोक्ष हेतुके प्रकर्ष का भी निषेध होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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