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________________ मोक्षस्वरूपविचारः २४७ नित्यत्वविधिस्तेनैवानित्यत्वविधिः; येनैकत्र विरोधः स्यात्; अनुवृत्त-व्यावृत्ताकारतया नित्यानित्यत्वविधेरभ्युपगमात् । विभिन्नधर्म निमित्तयोश्च विधिप्रतिषेधयो कत्र प्रतिषेधः अतिप्रसङ्गात् । न चानुवृत्तव्यावृत्ताकारयोः सामान्य विशेषरूपतयाऽऽत्यन्तिको भेदः; पूर्वोत्तरकालभाविस्वपर्याय तादात्म्येनावस्थितस्थानुगताकारस्य बाह्याध्यात्मिकार्थेषु प्रत्यक्षप्रतीतौ प्रतिभासनादित्यग्रे प्रपञ्चयिष्यते। स्वदेशादिषु सत्त्वं परदेशादिष्वसत्त्वं च वस्तुनोऽभ्युपगम्यते एवेतरेतराभावात्; इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम्; इतरेतराभावस्य घटादभेदे तद्विनाशे पटोत्पत्तिप्रसङ्गात् पटाभावस्य विनष्टत्वात् । अथ घटाद्भिन्नोऽसौ; तर्हि घटादीनामन्योन्यं भेदो न स्यात् । यथैव हि घटस्य घटाभावाद्भित्रत्वाद् घटरूपता तथा पटादेरपि स्यात् । नाप्येषां परस्पराभिन्नानामभावेन भेदः कत्तु शक्यः; भिन्नाभिन्न प्रतिषेधोंका एकत्र रहना निषिद्ध भी नहीं है अन्यथा अतिप्रसंग होगा अर्थात् स्वकार्यके प्रति कर्तृत्व और पर कार्यके प्रति अकर्तृत्व जैसे दो धर्म भी एकत्र वस्तुमें रहना दुर्लभ होगा जो कि सभी परवादीको अभीष्ट है । अनुवृत्ताकार सामान्यरूप है और व्यावृत्ताकार विशेषरूप है अतः इनमें अत्यन्त भेद है ऐसा कहना भी अशक्य है, बाह्य और आध्यात्मिक [अचेतन और चेतन] सभी पदार्थों में पूर्व उत्तर कालभावी स्व स्व पर्यायोंके साथ तादात्म्य रूपसे रहनेवाला अनुगताकार [ अनुवृत्ताकार ] प्रत्यक्षज्ञानमें साक्षात् ही प्रतिभासित हो रहा है, इस विषयमें आगे विस्तार पूर्वक कथन करेंगे। वस्तुका स्वदेशादिमें सत्व और परदेशादिषु असत्व इतरेतराभावसे होता है ऐसा वैशेषिक का स्वीकार करना भी असमीक्षकारी है, यदि आपके. इतरेतराभावको पदार्थसे अभिन्न माने तो घटके नष्ट होने पर उससे अभिन्न इतरेतराभावका नाश होगा और पटकी उत्पत्ति का प्रसंग आयेगा क्योंकि पटका अभाव विनष्ट हो चुका है । यदि इस इतरेतराभावको घटसे भिन्न स्वीकार करे तो घट पट आदि पदार्थोंका परस्परमें भेद नहीं रहेगा, क्योंकि जैसे भिन्न घटाभावसे घटकी घटरूपता हो सकती है वैसे पट आदिकी भी हो सकती है । तथा परस्पर अभिन्नभूत घट पट आदि पदार्थों का अभाव द्वारा [इतरेतराभाव द्वारा] भेद करना भी शक्य नहीं, क्योंकि यदि अभाव ने भिन्न रूप भेदको किया तो उक्त पदार्थोंका सांकर्य बन बैठेगा और यदि अभिन्नरूप भेदको किया तो पदार्थको ही किया ऐसा अर्थ होनेसे अभावकी अकिंचित्करता सिद्ध होती है । पदार्थों में भेदका व्यवहार इतरेतराभाव मूलक हो ऐसी बात भी नहीं है, जगत्के यावन्मात्र पदार्थ अपने अपने कारणोंद्वारा असाधारण स्वरूपसे उत्पन्न हुए हैं उनका प्रत्यक्षमें साक्षात् प्रतिभासन हो रहा है उसीसे भेद व्यवहार की सिद्धि हो जाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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