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________________ २४६ प्रमेयकमलमार्तण्डे भावः; तदहर्जातबालकस्य मुखप्रक्षिप्तस्तन्यजनितसुखसंवेदनेन व्यभिचारात् । न खलु तत्तेन 'इदमित्थम्' इति निरूप्यते। न च दुःखाभावात्सुखशब्दप्रयोगोऽत्र गौणः; अभावस्य प्रतियोगिभावान्तरस्वभावतया व्यवस्थितेः इत्यलमतिप्रसङ्गेन । यञ्चोक्तम्-अनेकान्तज्ञानस्य बाधकसद्भावेन मिथ्यात्वोपपत्तनै निःश्रेयससाधकत्वम्; तदप्युक्ति मात्रम्; तज्ज्ञानस्यैवाबाधिततया सम्यक्त्वेन वक्ष्यमाणत्वात् । नित्यानित्यत्वयोविधिप्रतिषेधरूपत्वादभिन्न धर्मिण्यभावः; इत्याद्यप्ययुक्तम्, प्रतीयमाने वस्तुनि विरोधासिद्धः । न च येन रूपेण हुमा सुख उस बालक द्वारा निरूपित नहीं होता तो भी उसका अस्तित्व स्वीकार करते हैं अतः निरूपण नहीं होनेसे निद्रित दशामें संवेदनादिका अभाव है ऐसा कहना व्यभिचरित होता है। ___ निद्रित अवस्थामें दुःखका अभाव होनेसे "सुख पूर्वक सोया था" इत्यादि प्रतीतिमें सुख शब्दका प्रयोग होता है अतः गौण है इसप्रकार कहना भी अशक्य है, अभाव भी भावांतर स्वभाववाला होता है ऐसा पूर्व में निश्चय कर आये हैं, अतः अब सुप्तादि दशामें ज्ञानका सद्भाव करनेसे बस हो वह सर्वथा सुप्रसिद्ध ही है। जैनके मोक्ष स्वरूपमें दोष उपस्थित करते हुए वैशेषिकने कहा था कि जैन अनेकांतके ज्ञानसे मोक्ष होना मानते हैं किन्तु उस ज्ञानमें बाधाका सद्भाव होनेके कारण मिथ्यापना है अत : वह मोक्षका हेतु नहीं हो सकता, सो यह उक्ति मात्र है, अनेकांत स्वरूप ज्ञान ही सर्वथा अबाधित होनेसे सम्यग् है ऐसा हम आगे प्रतिपादन करनेवाले हैं। शंका-नित्य और अनित्य धर्म परस्परमें विधि और प्रतिषेध रूप होनेसे एक धर्मीमें उनका अभाव है ? ___ समाधान-यह शंका असत् है, जो वस्तु प्रतीतिमें आ रही है उसमें विरोध मानना प्रसिद्ध है। तथा वस्तुमें जिसरूपसे नित्यपनेकी विधि होती है उसी रूपसे अनित्यपनेकी विधि नहीं होती है जिससे कि उनका एकत्र रहना विरुद्ध हो जाय, अनुवृत्त रूपसे तो नित्यत्वकी विधि होती है और व्यावृत्तरूपसे अनित्यत्वकी विधि होती है ऐसा हमारा अविरुद्ध सिद्धांत है । तथा विभिन्न धर्मोंके निमित्तसे होनेवाले विधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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