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[ १७ ]
उत्तर में निर्दोष पद और वाक्य का लक्षण प्राचार्य द्वारा प्रस्फुटित किया गया है कि "वर्णानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायः पदम् " । पदानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायः वाक्यम्” इति । अर्थात् परस्पर में सापेक्ष किन्तु वर्णांतर निरपेक्ष ऐसा जो वर्ण समुदाय है अर्थात् देवदत्तः, घटः, जिनदत्तम्, दात्रेण इत्यादि में स्थित जो वर्ण समुदाय है उसे पद कहते हैं । परस्पर में अपेक्षित किन्तु पदांतर से निरपेक्ष ऐसा जो पद समुदाय है उसे वाक्य कहते हैं । वाक्य के लक्षण में परवादियों के यहां पर विभिन्न मत हैं कोई गच्छति आदि क्रिया पद को वाक्य मानते हैं, कोई वर्ण समुदाय मात्र को वाक्य मानते हैं इत्यादि किन्तु ये लक्षण निर्दोष सिद्ध नहीं होते, क्योंकि केवल क्रिया पद या वर्ण समुदाय मात्र पूर्ण वाक्यार्थ का बोध नहीं करा सकते हैं । वाक्य द्वारा जो अर्थ प्रतीति होती है उसमें भी विवाद है कि वाक्य में स्थित जो अनेक पद हैं उनमें से किस पद द्वारा वाक्यार्थ का बोध होता है एक पद द्वारा या संपूर्ण पदों द्वारा ? आचार्य ने समझाया है कि पूर्व पूर्व पद के अर्थ ज्ञान के संस्कार अंत्य पद के सहायक होते हैं और उससे वाक्यार्थ प्रतीत हो जाता है । मीमांसक मत के अंतर्गत प्रभाकर का कहना है कि एक पद अन्य पदों के वाच्यार्थों से अन्वित ही रहता है अतः पद के अर्थ की प्रतिपत्ति से वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति भी हो जाती है किन्तु यह अन्वित अभिधानवाद युक्त नहीं है इस तरह तो प्रत्येक पद को वाक्यपना हो जाने का प्रसंग
ता है । इसी प्रकार भाट्ट ( मीमांसक का एक मत ) अभिहित अन्वयवाद मानते हैं अर्थात् पदों द्वारा कहे गये अर्थों का अन्वय ही वाक्यार्थ है ऐसा कहते हैं यह कथन भी पूर्वोक्तरीत्या असंगत सिद्ध होता है ।
इस प्रकार विविध प्रकरणों से युक्त यह द्वितीय भाग समाप्त होता आगत विषयों का यह संक्षिप्त परिचय है ।
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