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प्रमेयंकमल मार्त्तण्डे
ज्ञानस्यान्तराभवशरीरज्ञानहेतुत्वे गर्भशरीरज्ञानहेतुत्वे वा सन्तानान्तरेपि ज्ञानजनकत्वं किन्न स्यान्नियतहेतोरभावात् ? अथेष्यते एव उपाध्यायज्ञानं शिष्यज्ञानस्य हेतुः । श्रन्यस्य कस्मान्न भवति ? कर्मवासना नियामिका चेन्न; तस्या ज्ञानव्यतिरेकेणासम्भवात् । तत्तादात्म्ये हि विज्ञानं बोधरूपतया विशिष्ट' बोधाच्च बोधरूपतेत्यविशेषेण ज्ञानं विदध्यात् ।
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सुषुप्तावस्थाज्ञानस्य जाग्रदवस्थाज्ञान' कारणम् इत्यप्यसम्भाव्यम्; सुषुप्तावस्थायां च ज्ञानाभ्युपगमे जाग्रदवस्थातो विशेषो न स्यादुभयत्रापि स्वसंविदितज्ञानसद्भावाविशेषात् । मिद्ध ेनाभिभूतत्वं विशेषः; इत्यप्यसत्; तस्यापि तद्धर्मतया तादात्म्येनाभिभावकत्वायोगात् । तद्व्यतिरेके तु रूपवेद
वैशेषिक - मरणकालके शरीरका ज्ञान मध्यके शरीरके ज्ञानका हेतु है अथवा गर्भस्थ शरीरके ज्ञानका हेतु है ऐसा स्वीकार करे तो वह ज्ञान अन्य व्यक्तिके शरीरके ज्ञान हेतु भी हो सकेगा ? क्योंकि हेतु नियत तो रहा नहीं ?
बौद्ध ग्रन्यव्यक्तिके शरीरके ज्ञानका हेतु होना भी संभव है, क्योंकि उपाध्याय का ज्ञान शिष्यके ज्ञानका हेतु होता हुआ देखा जाता है ?
वैशेषिक - उपाध्यायका ज्ञान शिष्यके ज्ञानका हेतु होता है वैसे अन्य किसी व्यक्ति ज्ञानका हेतु क्यों नहीं होता अथवा शिष्यका ज्ञान उपाध्यायके ज्ञानका हेतु क्यों नहीं होता है ?
बौद्ध - कर्म वासनाके नियमके कारण ऐसा नहीं होता ?
वैशेषिक - यह उत्तर प्रयुक्त है, ज्ञान ही वासनारूप होता है ज्ञानके अतिरिक्त वासनाका होना असंभव है, क्योंकि विज्ञान बोधरूपतासे अविशिष्ट [ साधारण ] रहता है एवं संतानांतरमें ज्ञानसे ज्ञानरूपताको अविशेषरूपसे धारता है ऐसा कथन ज्ञान और वासनाका तादात्म्य स्वीकार करनेपर ही सिद्ध हो सकता है ।
दूसरी बात यह है कि जाग्रत अवस्थाका ज्ञान सुप्त अवस्थाके ज्ञानका हेतु है ऐसी पूर्वोक्त मान्यता भी असंभव है । सुप्त अवस्थामें ज्ञानको स्वीकार करनेपर जाग्रत अवस्थासे उसमें अंतर ही नहीं रहेगा, क्योंकि दोनोंमें संविदित ज्ञानका सद्भाव समान रूपसे हैं ? निद्राद्वारा ज्ञान अभिभूत होता है अतः दोनों अवस्थाओं में समानज्ञान नहीं है ऐसा कहना भी असत् है, आपके मत में ग्रभिभव [निद्रा ] आदिको भी ज्ञानका धर्म माना है अतः उस तादात्म्यरूप अभिभवद्वारा ज्ञानका अभिभूत होना बनता ही नहीं, यदि निद्रादि प्रभिभव ज्ञानसे पृथक् सत्ता वाले हैं तो रूप, वेदना आदि पदार्थोंसे पृथक्
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