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________________ मोक्षस्वरूपविचारः २१३ नापि विशुद्धज्ञानोत्पत्तिः; रागादिमतो विज्ञानात्तद्र हितस्यास्योत्पत्त रयोगात् । यथैव हि बोधाद्बोधरूपता ज्ञानान्तरे तथा रागादेरपि स्यात्तादात्म्यात्, अन्यथा तादात्म्याभावः स्यात् । न च 'बोधादेव बोधरूपता' इति प्रमाणमस्ति; विलक्षणादपि कारणाद्विलक्षणकार्यस्योत्पत्तिदर्शनात् । बोधस्य च बोधान्तरहेतुत्वे पूर्वकालभावित्वं समानजातीयत्वमेकसन्तानत्वं वा न हेतुः; व्यभिचारात्; तथाहि-पूर्वकालभावित्वं तत्समानक्षणैः, समानजातीयत्वं च सन्तानान्तरज्ञानैर्व्यभिचारि, तेषां हि पूर्वकालभावित्वे तत्समानजातीयत्वे च सत्यपि न विवक्षितज्ञानहेतुत्वम् । एकसन्तानत्वं च अन्त्यज्ञानेन व्यभिचारि । अथ नेष्यत एवान्त्यज्ञानं सर्वदाऽऽरम्भात्; तथाहिमरणशरीरज्ञानमपि ज्ञानान्तरहेतुर्जाप्रदवस्थाज्ञानं च सुषुप्तावस्थाज्ञानस्येति । नन्वेवं मरणशरीर यदि सराग ज्ञानसे ज्ञानांतरमें सरागत्व प्राना नहीं मानते तो राग और ज्ञानका तादात्म्य मानना असंभव होगा । ज्ञानसे ही ज्ञानत्व पाता है ऐसा कथन भी सर्वथा प्रमाणभूत नहीं है, विलक्षणकारणसे अन्य विलक्षणभूत कार्यकी उत्पत्ति होना भी संभव है, जैसे विभिन्न आकार वाले बीजसे विभिन्न आकारवाला अंकुर उत्पन्न होता है। विवक्षितज्ञान उत्तर कालीन ज्ञानका कारण है ऐसा मानने में क्या हेतु है ? पूर्व काल भावित्व है अथवा समान जातियत्व है या एक संतानत्व है ? तीनों हेतु व्यभिचार दोष युक्त हैं, कैसे सो बताते हैं-पूर्वकालीन ज्ञान उत्तर ज्ञानका हेतु है, क्योंकि वह पूर्वमें हुआ है, ऐसा माने तो समान क्षणोंके साथ अनैकान्तिकता होगी, अर्थात् अन्य अनेक पुरुषोंके ज्ञान भी उस विवक्षित पूर्वकालीन ज्ञानक्षणके साथ थे अतः पूर्वकालीनज्ञान ही कहलाते थे, किन्तु वे इस विवक्षित उत्तर कालीन ज्ञानके हेतु नहीं हैं, अतः पूर्वकाल भावी होने मात्रसे वह उसका हेतु है ऐसा अनुमान वाक्य अयुक्त है । समान जातीय होनेसे ज्ञानका हेतु ज्ञान है ऐसा कहना भी युक्ति संगत नहीं, अन्य व्यक्तिके ज्ञान भी समान जातीय होते हैं किन्तु वे इस विवक्षित ज्ञानके हेतु तो नहीं होते।। एक संतानत्व होनेसे ज्ञान ज्ञानका हेतु है ऐसा तीसरा हेतुवाला अनुमान भी अप्रमाण है, क्योंकि इस हेतुका अंतिम ज्ञानके साथ व्यभिचार आता है, अर्थात जो एक संतान रूप है वह उत्तर ज्ञानको उत्पन्न करे ही ऐसा नियम नहीं है, योगीका अंतिम ज्ञान उत्तरज्ञानको उत्पन्न नहीं करता है । बौद्ध-उत्तरोत्तरज्ञान सदा उत्पन्न होते रहनेसे अंतका ज्ञान है ऐसा माना ही नहीं, मरण समयके शरीरका ज्ञान अन्य जन्यके ज्ञानका हेतु होता है एवं जाग्रद अवस्थाका ज्ञान सुप्त अवस्थाके ज्ञानका हेतु होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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