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________________ कवलाहारविचारः वा, प्रारणत्रारणार्थं वा ? न तावच्छरीरोपचयार्थम्; लाभान्तरायप्रक्षयात्प्रतिसमयं विशिष्टपरमाणुलाभतस्तत्सिद्धे ।। तदर्थं तद्ग्रहणे चासौ कथं निर्ग्रन्थः स्यात् प्राकृतपुरुषवत् ? नापि ज्ञानादिसिद्ध्यर्थम्; यतो ज्ञानं तस्याखिलार्थविषयमक्षयस्वरूपम् संयमश्च यथाख्यातः सर्वदा विद्यते । ध्यानं तु परमार्थतो नास्ति निर्मनस्कत्वात्, योगनिरोधत्वेनोपचारतस्तत्रास्य सम्भवात् । नापि प्रारणत्रारणार्थम् ; अपमृत्युरहितत्वात् । नापि क्षुद्व ेदनाप्रतीकारार्थम्; अनन्तसुखवीर्ये भगवत्यस्याः सम्भवाभावस्योक्तत्वात् । १६५ ननु भगवतो भोजनाभावे कथम् 'एकादश जिने परीषहाः' इत्यागमविरोधो न स्यात् ? तदसत्; तेषां तत्रोपचारेणैव प्रतिपादनात्, उपचारनिमित्तं च वेदनीयसद्भावमात्रम् । परमार्थतस्तु तत्र तेषां सद्भावे क्षुदादिपरीष हसद्भावाद्बुभुक्षावद् रोगबधतृरणस्पर्शप रोषहसद्भावान्महद्दुःखं क्योंकि भावमन नहीं है । सिर्फ योग निरोधादि को देखकर ध्यानको उपचारसे माना है । प्राणरक्षा के लिये भोजन करना भी आवश्यक नहीं वे तो अपमृत्यसे रहित हैं । क्षुधा की पीड़ाको दूर करनेके लिये भोजन करते हैं ऐसा कहना भी व्यर्थ है क्योंकि वे अनंत सुखी हैं, अनंतसुख अनंतवीर्य वाले भगवानके क्षुधाकी पीड़ा होती ही नहीं ऐसा भी सिद्ध हो चुका है । श्वेताम्बर - भगवान के भोजन नहीं होता ऐसा माने तो उनके "एकादश परिषह होती हैं" ऐसे आगम वाक्यसे विरोध प्राप्त होगा ? दिगम्बर - ऐसा नहीं होगा, केवलीके ग्यारह परीषह उपचारसे कही है, उपचार भी इसलिये किया है कि वेदनीयकर्म का सद्भाव है, परमार्थसे वैसा माना जाय तो जैसे क्षुधा परीषहके सद्भावमें भूख लगती है वैसे रोग, वध, तृणस्पर्श आदि परीषहों के होनेसे तज्जन्य पीड़ा भी होगी ? इसतरह उनके महान दुःखोंका सद्भाव सिद्ध होगा । ऐसे दुःखित पुरुष केवली भगवान नहीं कहला सकते, वे तो हमारे सदृश सिद्ध हुए । Jain Education International यदि भगवान भोजन करते हैं, स्पर्शनेन्द्रियादि द्वारा शीतादि वस्तुनोंका अनुभव करते हैं तो वे मतिज्ञानी कहलाये, केवलज्ञानी कहां सिद्ध हुए ? केवलज्ञानी केवलज्ञान द्वारा भोजनादिका अनुभव करते हैं ऐसा कहे तो जगतके यावन्मात्र भोजनादि पदार्थोंका एवं पराये व्यक्ति द्वारा अनुभूत पदार्थोंका अनुभोक्ता बन जायेंगे । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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