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________________ प्रमेयकमल मार्त्तण्डे किञ्च, सौ भोजनं कुर्वाणः किमेकाकी करोति, शिष्यैर्वा परिवृतः ? यदि एकाकी; पश्चालग्नान् शिष्यान्विनिवार्य श्रावकानां गृहे गत्वा भुंक्तं तहि दीनः स्यात् । अथ तैः परिवृतः तर्हि सावद्यप्रसङ्गः । १६४ किञ्च, असौ भुक्त्वा प्रतिक्रमणादिकं करोति वा न वा ? करोति चेत्; प्रवश्यं दोषवान् सम्भाव्यते, तत्करणान्यथानुपपत्तेः । न करोति चेत्; तर्हि भुजिक्रियातः समुत्पन्न दोषं कथं निराकुर्यात् ? प्रहारकथामात्रेणापि ह्यप्रमत्तोपि सन् साधुः प्रमत्तो भवति, नार्हन्भुञ्जानोपीति श्रद्धामात्रम् । प्रमत्तत्वे चास्य श्र णितः पतितत्वान्न केवलभाक्त्वम् । किमर्थं चासौ भुंक्त - शरीरोपचयार्थम्, ज्ञानध्यान संयम संसिद्ध्यर्थं वा, क्षुद्वेदनाप्रतीकारार्थं तथा श्वेताम्बर सम्मत केवली भोजन करते हैं सो अकेले करते हैं अथवा शिष्योंसे परिवृत होकर करते हैं ? अकेले करते हैं तो अपने पीछे लगे हुए शिष्यों को रोककर एकाकी श्रावकके घर जाकर भोजन करनेसे दीन जैसे कहे जायेंगे । तथा शिष्योंसे परिवृत्त होकर भोजन करते हैं तो सावद्य दोष का प्रसंग आता है । केवली भगवान श्राहारके अनंतर प्रतिक्रमणादि करते हैं या नहीं ? करते हैं तो सदोष सिद्ध हुए। क्योंकि दोष युक्त व्यक्ति ही प्रतिक्रमण करते हैं । यदि कहे कि वे प्रतिक्रमण तो नहीं करते तो भोजन क्रियासे संजात दोषको किसप्रकार दूर कर सकेंगे ? जब कि भोजन कथाको करनेमात्र से अप्रमत्त गुणस्थानवर्त्ती साधु प्रमत्त गुणस्थान में प्राजाते हैं तब त केवली साक्षात् भोजन करते हुए भी प्रमत्त नहीं होते, यह कहना तो श्रद्धा मात्र है यदि आहार करते हुए केवली प्रमत्त हो जाते हैं ऐसा मानते हैं तब तो वे श्र ेणिसे भी नीचे गिर गये ? फिर केवलज्ञानी कैसे रहे । तथा केवली भगवान किस लिये भोजन करते हैं ? शरीर पुष्टिके लिये, ज्ञान ध्यान एवं संयम की सिद्धि हेतु, क्षुधा वेदना परिहारके लिये, अथवा प्राणरक्षाके लिये ? शरीर पुष्टिके लिये भोजन करना आवश्यक नहीं, क्योंकि लाभांतराय कर्मका सर्वथा क्षय हो जानेसे प्रतिक्षण दिव्य विशिष्ट परमाणुओं का लाभ भगवानके होता ही रहता है, उन्हींसे शरीर पुष्ट बना रहता है । तथा शरीर पुष्टि हेतु भगवान प्रहार करते हैं तो वे निर्ग्रन्थ कहां रहे ? वे तो प्राकृत ( हीन) पुरुष सदृश हो गये । ज्ञानादिकी सिद्धिके लिये प्राहार करना भी बनता नहीं, उनके तो सकल पदार्थ विषयक अक्षय अनंतज्ञान प्राप्त हो चुका है, संयम भी यथाख्यात चारित्र नामा प्राप्त है, और ध्यान तो उनके होता नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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