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________________ प्रकृति कर्तृत्ववाद के खण्डन का सारांश सांख्य के निरीश्वर सांख्य और सेश्वर सांख्य ऐसे दो भेद हैं, निरीश्वर सांख्य प्रकृति को जगत कर्ता मानते हैं और सेश्वर सांख्य ईश्वर और प्रकृति दोनों को कर्ता मानते हैं पहले निरीश्वर सांख्य का पूर्वपक्ष रखकर प्राचार्य ने सविस्तार खंडन किया है। सांख्य सम्पूर्ण जगत का कर्ता प्रकृति है अतः वही सर्वज्ञ है, सारी सृष्टि प्रकृति से निर्मित है, ऐसा मानते हैं, आगे इसीको कहते हैं प्रकृते महांस्ततोऽहंकारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडकात् पंचभ्यः पंच भूतानि ॥१॥ प्रकृति से विषय का निश्चय कराने वाली बुद्धि उत्पन्न होती है, बुद्धि से मैं सुभग हूं इत्यादि अहंकार पैदा होता है, अहंकार से शब्द रस गन्ध रूप स्पर्श ये पंच तन्मात्रायें एवं ग्यारह इन्द्रियां प्रादुर्भूत होती हैं, पांच तन्मात्रा से पांच भूत होते हैं, शब्द से आकाश, स्पर्श से वायु, रस से जल, रूप से तेज, गन्ध से पृथ्वी इसप्रकार ये सब प्रधान के २४ भेद हैं और पुरुष मिलाने से २५ तत्व होते हैं। प्रकृति के दो भेद हैं व्यक्त और अव्यक्त, व्यक्त प्रकृति त्रिगुणात्मक, अविवेकी, विषय, सामान्य, अचेतन, प्रसवधर्मी होता है तथा हेतुमत्व, अनित्य, अव्यापि सक्रिय, अनेक, आश्रित, लिंग, सावयव एवं परतंत्र होता है । और अव्यक्त प्रकृति इससे विपरीत है । इस प्रकार महान् अहंकार पंचभूत आदि सभी तत्व प्रकृतिसे प्रादुर्भूत होने के कारण सृष्टि का कर्ता प्रकृति है ऐसा कहना सिद्ध नहीं होता है । जैन- यह सांख्य का कथन प्रमाण से सिद्ध नहीं होता है, आपने महान् अादि को प्रकृत्यात्मक माना है, फिर वे प्रकृति के कार्य कैसे हो सकते हैं ? जो जिसरूप तन्मय होता है वह उसका कार्य या कारण नहीं होता, क्योंकि कारण और कार्य भिन्न भिन्न लक्षण वाले होते हैं तथा आप प्रत्येक वस्तु को नित्य मानते हैं नित्य वस्तु में कार्य कारण भाव होना शक्य नहीं, क्योंकि बिना परिणमन हुए कोई वस्तु किसी का कारण नहीं बन सकती तथा अचेतन स्वभाव वाली प्रकृति से बुद्धि अहंकार आदि चेतन स्वभाव रूप कार्य प्रादुर्भूत होना असंभव है, मूर्तिक शब्द से अमूर्तिक आकाश होना भी असंभव है । शब्द अमूर्तिक है ऐसा कहना भी अशक्य है, क्योंकि मूर्तिक पर्वत वायु आदि से शब्द का अभिघात होने से निश्चित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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