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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे यच्चान्यदुक्तम्-प्रसादतापदैन्यादिकार्योपलम्भात्प्रधानान्वितत्वसिद्धिः; तदप्ययुक्तम्; अनेकान्तात्, कापिलयोगिनां हि पुरुषं प्रकृतिविभक्त भावयतां पुरुषमालम्ब्य स्वभ्यस्तयोगानां प्रसादो भवति प्रीतिश्च, अनभ्यस्तयोगानां क्षिप्रतरमात्मानमपश्यतामुढे गः, प्रकृत्या जडमतीनां मोहो जायते, न चासौ पुरुषः प्रधानान्वितः परैरिष्टः । सङ्कल्पात्प्रीत्याद्युत्पत्तिर्न पुरुषादिति शब्दादिष्वपि समानम् । सङ्कल्पमात्रभावित्वे च प्रीत्यादीनामात्मरूपताप्रसिद्धिः, सङ्कल्पस्य ज्ञानरूपत्वात्, ज्ञानस्य चात्मधर्मतया स्वसंवेदनसिद्धिप्रस्तावे प्रतिपादितत्वात् इत्यलमतिप्रसङ्गन। अस्तु वा प्रीत्यादिसमन्वयो व्यक्त, तथापि न प्रधानप्रसिद्धिः, साधनस्यान्वयासिद्धः । न खलु यथाभूतं त्रिगुणात्मकमेकं नित्यं व्यापि चास्य कारणं साधयितुमिष्ट तथाभूतेन क्वचिद्ध तोः प्रतिबन्धः सिद्धः । नापि यदात्मक कार्यमुपलभ्यते कारणेनाप्यवश्यं तदात्मना भाव्यम्, अन्यथा महदादी हेतुमत्त्वानित्यत्वाव्यापित्वादिधर्मोपलम्भात् प्रधानेपि तादू प्यप्रसिद्धिप्रसङ्गाद्धेतोविरुद्धतानुषङ्गः। दर्शन न होने के कारण उद्वेग होता है, और जो प्रकृतिसे जडबुद्धि हैं उनको मोह होता है, सो यह प्रसाद आदि का अनुभवन करने वाला पुरुष [आत्मा] प्रधान से अन्वित है ऐसा मानना आप स्वयं को इष्ट नहीं है । यदि कहा जाय कि प्रीति आदि की उत्पत्ति संकल्प से होती हैं न कि पुरुष से ? सो यह शब्दादि में भी समान रूप से घटित होता है। तथा प्रीति आदिको संकल्पमात्रसे उत्पन्न होना माने तो वे अात्मारूप सिद्ध होंगे, क्योंकि संकल्प ज्ञानरूप होता है और ज्ञान प्रात्माका धर्म है ऐसा स्वसंवेदन सिद्धि के प्रस्ताव में प्रतिपादन कर आये हैं, अब अधिक कहने से बस हो । प्रीति आदि का समन्वय व्यक्त में होता है ऐसा मान लेवे तो भी प्रधान की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि समन्वय दर्शनात् इत्यादि हेतु का अन्वय प्रसिद्ध है, आपको इस प्रधान में जिस प्रकार का त्रिगुणात्मक एक, व्यापि और नित्य कारणपना सिद्ध करना इष्ट है उस प्रकारका कारणपना कहीं पर हेतु के अविभाव रूपसे प्रसिद्ध नहीं है । तथा कार्य जिस रूप उपलब्ध होता है उस रूप कारण को भी होना आवश्यक नहीं है, यदि ऐसा माने तो महदादिमें हेतु मत्व, अनित्यत्व, अव्यापित्व आदि धर्म उपलब्ध होने से प्रधान में भी हेतुमत्व आदि की सिद्धि होने का प्रसंग आता है और इस तरह प्रधान को नित्य आदि रूप सिद्ध करने के लिये दिये गये सत्वादि हेतु विरुद्धपनेको प्राप्त होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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