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________________ प्रकृतिकत्तत्ववादः चोक्तम् भेदानां परिमाणादित्यादिहेतोः कारणं च प्रधानमेवैकं सिद्ध्यति तदप्युक्तिमात्रम्; 'भेदानां परिमाणात्' इत्यस्यैककाररणपूर्वकत्वेनाविनाभावासिद्धः, अनेककारण पूर्वकत्वेप्यस्याविरोधात् । कारणमात्रपूर्वकत्वेनैव हि तस्याविनाभावः, तत्साधने च सिद्धसाधनम् । १६५ 'भेदानां समन्वयदर्शनात्' इति चासिद्धम् ; न खलु सुखदुःखमोहसमन्वितं प्रमाणतः प्रसिद्धम्, शब्दादिव्यक्तस्याचेतनतया चेतनसुखादिसमन्वयविरोधात् । प्रयोगः- ये चैतन्यरहिता न ते सुखादिसमन्वयाः यथा गगनाम्भोजादयः, चैतन्यरहिताश्च शब्दादय इति । ननु चैतन्येन सुखादिसमन्वयस्य यदि व्याप्तिः प्रसिद्धा, तदा तन्निवर्त्तमानं शब्दादिषु सुखादिसमन्वयत्वं निवर्त्तयेत् । न चासौ सिद्धा, पुरुषस्य चेतनत्वेपि सुखादिसमन्वयासिद्ध ेः इत्यप्यपेशलम्; स्वसंवेदनसिद्धिप्रस्तावे सुखादिस्वभावतयात्मनः प्रसाधनात् । भेदों का समन्वय होने से एक प्रधान कारण ही सिद्ध होता है ऐसा हेतु भी सिद्ध है, क्योंकि प्रधान का सुख दुःख मोह से समन्वितपना प्रमाणसे सिद्ध नहीं होता, शब्दादि व्यक्त प्रधान का प्रचेतनपना होने से चेतन के धर्मरूप सुख दुःखादिसे समन्वय होने में विरोध आता है, अनुमान प्रमाणसे सिद्ध होता है कि - जो चेतन रहित होते हैं, वे सुखादि से समन्वित नहीं होते हैं, जैसे ग्राकाश पुष्पादि वस्तु, शब्द आदि व्यक्त भी चैतन्य से रहित हैं अतः सुखादि से समन्वित नहीं हो सकते । सांख्य-यदि चैतन्य के साथ सुखादि के समन्वयकी व्याप्ति सिद्ध होती तब तो उस चैतन्य के निर्वार्तित होने से शब्द आदि में सुखादि का समन्वयत्व निर्वातित होता, किन्तु वह व्याप्ति सिद्ध नहीं है, क्योंकि पुरुष के चेतनपना होते हुए भी सुखादि के साथ समन्वयपना नहीं है ? अभिप्राय यह है कि चैतन्य के साथ सुखादि का अविनाभाव नहीं है । जैन - यह कथन असत् है, हम जैन ने स्वसंवेदन सिद्धि के प्रकरण में यह भली भांति सिद्ध कर दिया है कि सुखादि स्वभाव चैतन्य ग्रात्मा के ही हैं । और जो कहा कि प्रसाद ताप दैन्य प्रादि कार्यों की उपलब्धि होने के कारण प्रधानसे वितपना सिद्ध होता है, इत्यादि, सो यह प्रयुक्त हैं, क्योंकि इस कथन में नैकान्तिकदूषण प्राता है, इसीको स्पष्ट करते हैं- पुरुषको प्रकृति से भिन्नरूप भावना - करने वाले कापिल योगियों के पुरुषका अवलम्बन लेकर जब अभ्यस्त योग हो जाता है तब प्रसाद और प्रीति होती है, जो अनभ्यस्त योगी हैं उनको शीघ्रता से आत्माका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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