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________________ १५६ प्रमेयकमलमार्तण्डे ___किंच, प्रवर्त्त मानो निवर्तमानश्च धर्मो धर्मिणोऽर्थान्तरभूतो वा स्यात्, अनर्थान्तरभूतो वा ? यद्यर्थान्तरभूतः; तहि धर्मी तदवस्थ एवेति कथमसौ परिणतो नाम ? न ह्यर्थान्तरभूतयोरर्थयोरुत्पादविनाशे सत्यविचलितात्मनो वस्तुनः परिणामो भवति, अन्यथाऽऽत्मापि परिणामी स्यात् । तत्सम्बद्धयोधर्मयोरुत्पाद विनाशात्तस्य परिणामः; इत्यप्यसुन्दरम्; धर्मिणा सदसतोः सम्बन्धाभावात् । सम्बन्धो हि धर्मस्य सतो भवेत्, असतो वा ? न तावत्सतः; स्वातन्त्र्येण प्रसिद्धाशेषस्वभावसम्पत्त रनपेक्षतया क्वचित्पारतन्त्र्यासम्भवात् । नाप्यसतः; तस्य सर्वोपाख्याविरहलक्षणतया क्वचिदप्याश्रितत्वानुपपत्तेः । न खलु खरविषारणादिः क्वचिदाश्रितो युक्तः । न च प्रवर्त्तमानाप्रवर्त्तमानधर्मद्वय व्यतिरिक्तो धर्मी उपलब्धिलक्षणप्राप्तो दर्शनपथप्रस्थायी कस्यचिदिति । अतः स तादृशोऽसद्वयवहार किंच, प्रवर्त्तमान और निवर्तमान धर्म धर्मीसे भिन्न है कि अभिन्न है ? यदि भिन्न है तो धर्मी तदवस्थ ही रहेगा अतः वह परिणमित हुआ ऐसा किसप्रकार कह सकते हैं ? क्योंकि अर्थान्तरभूत वस्तुओं का उत्पाद और विनाश होनेपर नित्य वस्तुका परिणाम हुआ ऐसा नहीं कहते हैं, अन्यथा आत्मा भी परिणामी होवेगा। शंका-नित्य वस्तु में संबद्ध हुए धर्मोंका उत्पाद और विनाश होनेसे नित्यका परिणाम माना जाता है । ___ समाधान-यह कथन असुन्दर है, धर्मीके साथ सत् असत् का सम्बन्ध होना असंभव है, सम्बन्ध सत् रूप धर्मका होता है या असत् रूप धर्मका होता है ? सतका होना शक्य नहीं, क्योंकि जो स्वतंत्रतासे प्रसिद्ध अशेष स्वभावों की संपत्तिसे युक्त है वह अनपेक्ष होनेके कारण कहीं पर परतंत्र नहीं हो सकता । असत् रूप धर्मका सम्बन्ध होता है ऐसा कहना भी प्रयुक्त है, असत् संपूर्ण धर्मोंसे रहित होनेसे कहीं पर भी आश्रित नहीं हो सकता, जैसे कि असत् भूत खरविषाणादि कहीं आश्रित नहीं होता है । तथा उपलब्धि लक्षण वाला धर्मी प्रवर्त्तमान और अप्रवर्तमान दो धर्मोसे अतिरिक्त किसीके दृष्टिगोचर नहीं होता है । अतः उसप्रकार का धर्मी विद्वानोंके लिये असत व्यवहारका ही विषय है । प्रवर्त्तमानादि धर्म धर्मीसे अभिन्न है ऐसा माने तो भी एक धर्मी स्वरूपसे अभिन्न होनेके कारण उन दोनोंमें एकपना ही होवेगा अतः धर्मीका परिणाम किसप्रकार सिद्ध हो सकता है ? अथवा धर्मोंका विनाश और प्रादुर्भाव भी किसप्रकार हो सकता है, क्योंकि धर्मीके स्वरूपके समान वे भी उससे अभिन्न होनेसे एक रूप है । अथवा उन उभय धर्मों के साथ धर्मीका अनन्यपना होनेसे धर्मों के स्वरूपके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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