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________________ प्रकृतिकत्त त्ववादः १५५ न च नित्यस्य कारणभावोस्ति, क्रमाऽक्रमाभ्यां तस्यार्थक्रियाविरोधात् । ननु नित्यमपि प्रधानं कुण्डलादौ सर्पवन्महदादिरूपेण परिणामं गच्छत्तेषां कारण मित्युच्यते, ते च तत्परिणामरूपत्वात्तकार्यतया व्यपदिश्यन्ते । परिणामश्चैकवस्त्वाधिष्ठानत्वादभेदेपि न विरुध्यते; इत्यप्यनेकान्तावलम्बने प्रमाणोपपन्नं नित्यैकान्ते परिणामस्यैवासिद्धः। स हि तत्र भवन् पूर्वरूपत्यागाद्वा भवेत्, अत्यागाद्वा ? यद्यत्यागात्; तदाऽवस्थासाङ्कर्य वृद्धाद्यवस्थायामपि युवाद्यवस्थोपलब्धिप्रसङ्गात् । अथ त्यागात्; तदा स्वभावहानिप्रसङ्गः। किञ्च, सर्वथा तत्त्यागः, कथञ्चिद्वा ? सर्वथा चेत्, कस्य परिणामः ? पूर्वरूपस्य सर्वथा त्यागादपूर्वस्य चोत्पादात् । कथञ्चित् चेत्, न किञ्चिद्विरुद्धम्, तस्यैवार्थस्य प्राच्यरूपत्यागेनान्यथाभावलक्षणपरिणामोपपत्तः । नित्यकान्तता तु तस्य व्याहन्येत । अत्र हि नैकदेशेन तत्यागो निरंशस्यैकदेशाभावात् । नापि सर्वात्मना; नित्यत्वव्याघातात् । उन महदादिका कारण प्रधान है ऐसा कहा जाता है एवं वे महदादि उसके परिणाम स्वरूप होनेसे उसके कार्य कहलाते हैं । और परिणाम एक वस्तुमें अधिष्ठित होनेसे अभेदमें भी हो सकता है, कोई विरोध नहीं है। समाधान-यह कथन अनेकांतका अवलम्बन लेनेपर प्रामाणिक हो सकता है, क्योंकि नित्य एकांत में परिणामका होना ही प्रसिद्ध है। नित्यमें परिणामका होना माना जाय तो वह पूर्वरूपके त्यागसे होगा या बिना त्यागके होगा ? यदि बिना त्यागके होगा तो अवस्थाअोंका सांकर्य होनेसे वृद्धादि अवस्था में भी युवादि अवस्थाकी उपलब्धि का प्रसंग पाता है । और यदि पूर्वावस्थाका त्याग करके परिणाम होता है तो स्वभाव हानिका प्रसंग आता है। दूसरी बात यह भी है कि पूर्वरूपका त्याग भी कथंचित् होता है या सर्वथा होता है । सर्वथा कहो तो किसका परिणाम होगा ? क्योंकि पूर्वरूपका तो सर्वथा त्याग हो चुका है और अपूर्वका उत्पाद हुआ है । पूर्वरूपका कथंचित् त्याग होता है ऐसा कहो तो कुछ भी विरुद्ध नहीं है, क्योंकि उसी अर्थके पूर्व रूपके त्यागसे अन्यथा भाव लक्षणस्वरूप परिणाम उपपन्न होता है । किन्तु ऐसा होने पर उसकी नित्य एकांतता नष्ट हो जाती है। क्योंकि नित्य एकांत में एक देशसे पूर्व रूपका त्याग होना अशक्य है, क्योंकि निरंश वस्तुमें एक देशका अभाव है। सर्व देशसे पूर्वरूपका त्याग होता है ऐसा कहो तो नित्यपनेका व्याघात होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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