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________________ ११८ प्रमेयकमलमार्तण्डे सादादौ लौकिकेतरयोः कृतबुद्धिजनकं ताहग्भूतस्य क्षित्यादावसिद्ध रसिद्धो हेतुः । सिद्धौ वा जीर्णकूपप्रासादादाविवाऽक्रियादशिनोपि कृतबुद्धिप्रसङ्गः । न च प्रकृत्याऽत्यन्तभिन्नोपि धर्मः शब्दमात्रेणाभेदी हेतुत्वेनोपादीयमानोऽभिमतसाध्य सिद्धये समर्थो भवत्यन्यत्राप्यस्याविरोधेनाशङ्काऽनिवृत्त:। यथा वल्मीके धमिरिण कुम्भकारकृतत्वसिद्धये मृद्विकारत्वमात्रं हेतुत्वेनोपादीयमानम् । नन्वेतत्कार्यसमं नाम जात्युत्तरम् । तदुक्तम्-“कार्यत्वान्यत्वलेशेन यत्साध्यासिद्धिदर्शनं तत्कार्यसमम्' [ ] इति । अस्य चासदुत्तरत्वान्नातः प्रकृतसाध्यसिद्धिप्रतिबन्धोऽन्यथा सकलानुमानोच्छेदः। शब्दानित्यत्वे हि साध्ये किं घटादिगतं कृतकत्वं हेतुत्वेनोपादीयते, कि वा शब्दगतम्, उभयगतं वा ? प्रथमपक्षे हेतोरसिद्धिः; न ह्यन्यगतो धर्मोऽन्यत्र वर्तते । द्वितीये तु अत्यन्त भिन्न है शब्द मात्र से अभेद रूप है उसको हेतु रूप से ग्रहण किया जाने पर अभिमत साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि इसका अन्यत्र (विपक्ष में) रहने में विरोध नहीं होने के कारण शंका की निवृत्ति नहीं हो पाती । जिस प्रकार वल्मीक को पक्ष बनाकर उसमें कुभकार कृतकत्व साध्य को सिद्ध करने के लिये मृद् विकारत्व को हेतु रूप से ग्रहण करने पर अभिमत सिद्धि नहीं होती है। भावार्थ-सर्प की बामी, कुम्भकार ने की है, क्योंकि मिट्टी का विकार स्वरूप है, इस अनुमान में मृद्विकारत्व को [ मिट्टी का विकारपना ] हेतु बनाया है किन्तु इसमें शंका रहती है कि यह घट के समान कुम्भकार कृत है अथवा अन्य प्राणी कृत है, वैसे ही कार्यत्व हेतु में शंका रहती है। यौग-इस तरह कार्यत्व हेतु को सदोष ठहराना गलत है, यह तो कार्य सम नामा जात्युत्तर है, इसका लक्षण बताया है कि कार्यत्व का थोड़ा सा अन्यपना दिखाकर साध्य की प्रसिद्धि दिखाना कार्य समनामा जाति है "असदुत्तरं जाति:" असत् उत्तर को जाति दोष कहते हैं, अतः इसके द्वारा प्रकृत साध्य की सिद्धि में प्रतिबंध नहीं हो सकता, अन्यथा संपूर्ण अनुमानों का उच्छेद होवेगा । इसी को बतलाते हैंशब्द अनित्य है, क्योंकि वह कृतक है, इस अनित्यत्व साध्य में कृतकत्व को हेतु रूप से ग्रहण किया गया है वह कृतकत्व घटगत धर्म है या शब्दगत धर्म है अथवा उभयगत धर्म है ? प्रथम पक्ष कहे तो हेतु प्रसिद्ध होता है, क्योंकि अन्यगत धर्म अन्य में नहीं रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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