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________________ ईश्वरवादः ११७ अथाऽक्षणिका तद्बुद्धिः । नन्वत्रापि 'क्षणिकश्शब्दोस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति विभुद्रव्य विशेषगुणत्वात् सुखादिवत्' इत्यत्रानुमानेऽनयैव हेतोरनेकान्तोऽस्या इव विभुद्रव्यविशेषगुणत्वेऽन्यस्यास्मदादिप्रत्यक्षत्वेपि नित्यत्वसम्भवात् । तथा 'क्षणिका महेश्वरबुद्धिर्बुद्धित्वादस्मदा दिबुद्धिवत्' इत्यनुमानविरोधश्च । अथ बुद्धित्वाविशेषेपि ईशास्मदादिबुद्धयोरक्षणिकत्वेतरलक्षणो विशेषः परिकल्प्यते तथा घटादिक्षित्यादिकार्ययोरप्यकर्तृ कत्त पूर्वकत्वलक्षणो विशेषः किन्न ष्यते ? तथा च कार्यत्वादिहेतोरनेकान्तः । तदेवं बुद्धिमत्त्वासिद्धेः कथं तत्कारणत्वेन कार्यत्वं व्याप्येत ? __ अस्तु वाऽविचारितरमणीयं बुद्धिमत्कारणत्वव्याप्त कार्यत्वम्; तथाप्यत्र याहग्भूतं बुद्धिमकारणत्वेनाऽभिनवकूपप्रासादादौ व्याप्त कार्यत्वं प्रमाणतः प्रसिद्ध यदक्रियादर्शिनोपि जीर्णकूपप्रा न्तिकता होती है, क्योंकि बुद्धि के विभु द्रव्य गुणत्व और अस्मदादि प्रत्यक्षत्व होने पर भी नित्यपना संभव है । बुद्धि को अक्षणिक मानने में दूसरे अनुमान से भी विरोध प्राता है-महेश्वर की बुद्धि क्षणिक है, क्योंकि वह बुद्धि रूप है, जैसे हम लोगों की बुद्धि है। यौग-ईश्वर और हमारी बुद्धि में बुद्धिपना समान हो किन्तु ईश्वर की बुद्धि नित्य और हमारी बुद्धि अनित्य है ऐसा विशेष माना गया है ? जैन-ऐसा ही घटादि में और पृथ्वी आदि में कार्यत्व तो समान है किन्तु एक कर्ता सहित है और एक कर्ता रहित है ऐसा विशेष भी क्यों नहीं माना जाय ? इस तरह कार्यत्व हेतु अनैकांतिक सिद्ध होता है । इस तरह बुद्धि मानपना ही प्रसिद्ध है तो उसके निमित्त से होने वाला कार्य भी प्रसिद्ध है, अतः बद्धिमान कारण रूप साध्य के साथ पृथ्वी अादि कार्य रूप हेतु की व्याप्ति किस प्रकार सिद्ध हो सकती है ? आप के अाग्रह से अविचारित रमणीय ऐसा कार्यत्व हेतु बुद्धिमान कारणत्व के साथ व्याप्त है ऐसा मान भी लेवे तथापि जिस प्रकार का कार्यपना नये कूप प्रासाद आदि में बुद्धिमान कारणत्व के साथ व्याप्त होता हुआ प्रमाण से सिद्ध है जो कि जीर्ण कप प्रासादादि में प्रक्रियादर्शी होने पर भी लौकिक एवं परीक्षक पुरुषों को कृतकपने की बुद्धि उत्पन्न कराता है, उस प्रकार की व्याप्ति पृथ्वी आदि में दिखायी नहीं देने से हेतु प्रसिद्ध ही रहता है। इस कार्यत्व हेतु को सिद्ध मानें तो भी जैसे जीर्णकूप महल आदि में रचना को नहीं देखने पर भी किये हुए हैं ऐसी बुद्धि होती है वैसे पृथ्वी, वृक्ष प्रादि में कृतकपने' की बुद्धि होनी चाहिये ? जो धर्म स्वभाव से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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