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________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे नाल्पपरिमाणपिण्डाकाकारतयोत्पद्यमानं प्रमाणतः प्रतीयते । श्राशूत्पत्तेर्भेदानवधारणात्तथा प्रतीतिरित्यप्यसङ्गतम्; सकलभावानां क्षणिकत्वानुषङ्गात् । प्रभेदाध्यवसायस्तु सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भादित्यनिष्टसिद्धिप्रसंगात् । नाप्यागमात्परमाण्वादिप्रसिद्धिस्तत्प्रामाण्याप्रसिद्धः । ११० सावयवमिति बुद्धिविषयत्वमपि, आत्मादिनानैकान्तिकं तस्याकार्यत्वेपि तत्प्रसिद्ध: । सावयवार्थसंयोगान्निरवयवत्वेप्यस्य तद्बुद्धिविषयत्वमित्यौपचारिकम्; तदप्यसंगतम् तस्य निरवयवत्वे व्यापित्वविरोधात् परमाणुवत् । तदपि ह्यौपचारिकमेव स्यात् । तदेवं सावयवत्वासिद्धः कथं ततः क्षित्यादेः कार्यत्वसिद्धि: ? अनिष्ट तत्व की सिद्धि होने का प्रसंग आता है । ग्रागम से भी परमाणु, आदि की सिद्धि नहीं होती है क्योंकि उसमें प्रामाण्य की प्रसिद्धि है । सावयत्व का तीसरा अर्थ किया था "सावयव है ऐसा बुद्धि का विषय होना" यह पक्ष भी आत्मादि द्रव्यों से अनेकांतिक होता है, आत्मादिक पदार्थ कार्य नहीं होते हुए भी सावयव हैं ऐसी बुद्धि के विषय हैं । योग - सावयवी पदार्थों के संयोग होने से निरवयवी आत्मादि में सावयव की बुद्धि का विषयपना ग्रा जाता है अतः यहां का सावयवत्व मात्र औपचारिक है । जैन - यह बात असंगत है, आत्मा को निरवयवी मानेंगे तो परमाणु के समान उसके व्यापकत्व में विरोध आयेगा अथवा आत्मा में सावयवत्व के समान व्यापकत्व भी औपचारिक सिद्ध होगा । इस प्रकार सावयव शब्द का अर्थ सिद्ध नहीं होता है अतः उससे पृथ्वी आदि का कार्यपना कैसे सिद्ध हो सकता है ? योग - जो पहले असत् रूप है उसके स्वकारण का समवाय होने से अथवा सत्ता का समवाय होने से पृथ्वी आदि का कार्यपना सिद्ध होता है । जैन - यदि ऐसी बात है तो किससे पहले असत् थे ? कारण समवाय से पहले कहो तो कारण समवाय के समय में पहले के समान स्वरूप सत्व का अभाव था कि नहीं ? यदि अभाव था तो प्राग् इस प्रकार का विशेषण व्यर्थ होता है क्योंकि समय में कार्य का स्वरूप से सत्त्व होना सत्त्व भी पहले था अतः कार्य में कार्यपना अर्थवान होता, तथा दूसरी बात यह होती प्रथम तो यह बात होती है कि समवाय के संभव है तो कारण के समान कार्य का सिद्ध नहीं होता, जिससे कि प्राग् विशेषण है कि पहले के समान कारण समवाय के समय में भी इस ( कार्य ) के स्वरूप सत्व का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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