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________________ १०२ प्रमेयकमलमार्तण्डे ननु क्षित्यादिसामग्रीप्रभवेषु स्थावरादिषु 'बुद्धिमतोऽभावादग्रहणं भावेप्यनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वाद्वा' इति सन्दिग्धो व्यतिरेकः कार्यत्वस्य; इत्यप्यपेशलम्; सकलानुमानोच्छेदप्रसङ्गात् । यत्र हि वह्न रदर्शने धूमो दृश्यते तत्र-'किं वह्न रदर्शनमभावादनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वाद्वा' इत्यस्यापि सन्दिग्धव्य तिरेकत्वान्न गमकत्वम् । यया सामनया धूमो जन्यमानो दृष्टस्तां नातिवर्तते इत्यन्यत्रापि समानम्-कार्यं कर्तृकरणादिपूर्वकं कथं तदतिक्रम्य वर्तेतातिप्रसङ्गात् ? । ___ अनुपलम्भस्तु शरीराद्यभावान्न त्वसत्त्वात्, यत्र हि सशरीरस्य कुलालादेः कर्तृता तत्र प्रत्यक्षेणोपलम्भो युक्तोऽत्र तु चैतन्यमात्रेणोपादानाद्यधिष्ठानान्न प्रत्यक्षप्रवृत्तिः । न च शरीराद्यभावे कर्तृत्वाभावस्तस्य शरीरेणाविनाभावाभावात् । शरीरान्तररहितोपि हि सर्वश्चेतनः स्वशरीरप्रवृत्तिनिवृत्ती करोतीति, प्रयत्नेच्छावशात्तत्प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षण कार्याविरोधे प्रकृतेपि सोस्तु । ज्ञानचिकीर्षा इस तरह धूम हेतु भी संदिग्ध व्यतिरेको होने से साध्य का गमक नहीं हो सकेगा। कोई कहे कि जिस सामग्री से धूम उत्पन्न होता हुआ रसोई में देखा था वह अपनी सामग्री का उल्लंघन नहीं कर सकता है ऐसा समझकर जहां पर्वत पर अग्नि नहीं दिखती है वहां भी उसका निश्चय हो जाता है ? सो यही बात कार्यत्व हेतु में घटित कर लेनी चाहिये जो कार्य होता है वह कर्ता करण आदि पूर्वक होता है, अतः पृथ्वी आदिक कार्यपना कर्ता का उल्लंघन कैसे कर सकता है ? अन्यथा अतिप्रसंग होगा। ईश्वर का जो अनुपलंभ है वह शरीरादिक नहीं रहने के कारण है न कि अभाव के कारण है । शरीरधारी कुभकार आदि का कर्तापन प्रत्यक्ष से उपलब्धि होना युक्त है, किंतु यहां स्थावर पृथ्वी आदि में चैतन्य मात्र से प्रेरित होकर कार्य होता है अतः प्रत्यक्ष प्रमाण की प्रवृत्ति नहीं है । शरीर का अभाव होने से ईश्वर में कपिन नहीं बन सकता है, ऐसा कहना भी गलत है क्योंकि कार्य का शरीर के साथ अविनाभाव संबंध नहीं है, देखा जाता है कि शरीरांतर से रहित होकर भी सभी चैतन्य अपने शरीर में प्रवृत्ति या निवृत्ति करते हैं। प्रयत्न और इच्छा से प्रवृत्ति निवृत्ति रूप कार्य होता है ऐसा माने तो पृथ्वी आदि में भी प्रयत्न और इच्छा से कार्य का कर्तापना मानना चाहिये । ज्ञान चिकीर्षा और प्रयत्नधारता यह कर्तृत्व का लक्षण है, शरीर सहित या शरीर रहित होना कर्तृत्व नहीं है । इसी को सिद्ध करते हैं-कोई व्यक्ति सशरीरी होकर भी घट कार्य करना नहीं जानता है तो उसमें कर्तृत्व नहीं दिखाई देता है और कोई पुरुष कार्य करना जान रहा है किंतु इच्छा नहीं है, तो भी कार्य नहीं करता है तथा इच्छा है किंतु प्रयत्न का अभाव है तो भी कार्य नहीं होता है इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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