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________________ ईश्वरवादः १०१ नुमानोच्छेदः । द्वितीयपक्षे तु नासिद्धत्वम्; कार्यत्वादेर्बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन प्रतिपन्नाविनाभावस्य क्षित्यादी प्रसिद्ध : पर्वतादौ धूमादिवत् । दृष्टान्तोपलब्धकार्यत्वादेस्ततो भेदे पर्वतादिधूमान्महानसधूमस्यापि भेदः स्यात् । ननु कार्यत्वस्य बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेनाविनाभावोऽसिद्ध;, अकृष्टप्रभवैः स्थावरादिभिर्व्यभिचारात्; तन्न; साध्याभावेपि प्रवत मानो हेतुर्व्यभिचारीत्युच्यते, न च तत्र कर्बभावो निश्चित: किन्त्वग्रहणम् । उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वे हि ततः कर्तु रभावनिश्चयः, न च तत्तस्येष्यते । अथ क्षित्याद्यन्वयव्यतिरेकानुविधानोपलम्भात्तेषां नातिरिक्तस्य कारणत्वकल्पना अतिप्रसङ्गात्; तर्हि धर्माधर्मयोरपि तत्र कारणता न भवेत् । न च तयोरकारएतैव; तरुतृरणादीनां सुखदुःखसाधनत्वाभावप्रसङ्गात्, धर्माधर्म निरपेक्षोत्पत्तीनां तदसाधनत्वात् । न चैवम्, न हि किञ्चिजगत्यस्ति वस्तु यत्साक्षात्परम्परया वा कस्यचित्सुखदुःखसाधनं न स्यात् । उसका ग्रहण नहीं होता है जिसकी उपलब्धि संभव है ऐसे कर्ता का अभाव निश्चित कर सकते हैं, यहां ईश्वररूप कर्ता को उपलब्धि संभव नहीं है । शंका-पृथ्वी आदि के अन्वय व्यतिरेक का अनुविधान उपलब्ध होने से उनसे अतिरिक्त अन्य कारण की कल्पना नहीं करनी चाहिये अन्यथा अति प्रसंग होगा ? ___समाधान-ऐसा माना जायगा तो उन पृथ्वी आदि में धर्म अधर्म रूप कारण भी सिद्ध नहीं हो सकेंगे किंतु वे कारण न हों ऐसी बात नहीं है, अन्यथा वृक्ष तृण आदि में सुख दुःख के कारणपने का अभाव होता है क्योंकि धर्म अधर्म की अपेक्षा के बिना जिनकी उत्पत्ति होती है वे सुख दुःख के साधन नहीं होते हैं, किंतु ऐसा देखा नहीं जाता है, जगत में कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है कि जो साक्षात या परम्परा से किसी के सुख दुःख का कारण नहीं होती हो । शंका-पृथ्वी आदि सामग्री से उत्पन्न होने वाले स्थावर आदि में जो बुद्धिमान कर्ता की उपलब्धि नहीं हो रही है वह अभाव के कारण नहीं हो रही है या सद्भाव होते हुए भी अनुपलब्धि लक्षण वाला होने से नहीं हो रही है इस प्रकार संदेह होने से कार्यत्व हेतु संदिग्ध विपक्ष व्यावृत्ति वाला है ? समाधान-यह कथन असत् है, इस तरह तो सभी अनुमान समाप्त हो जायेंगे, जहां पर अग्नि के अदर्शन में धूम दिखता है, वहां शंका होगी कि यहां अभाव होने से अग्नि नहीं दिखायी देती है अथवा अनुपलब्धि लक्षण वाली होने से नहीं दिखती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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